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प्रवचन-सारोद्धार
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दादा जिनदत्तसूरि की, महिमा अपरंपार । जैन संघ विस्तार कर, धर्म दीपाया सार ॥ ५ ॥ उनके शिष्य महान थे, मणिधारी गुरुदेव । अल्पवयी साधक बड़े, सुर-नर करे जसु सेव ॥ ६ ॥ कलियुग-कल्पतरु प्रकट, वाञ्छित पूरण काज । चमत्कार जिनके अजब, कुशलसूरि गुरुराज ॥ ७ ॥ चौथे श्री जिनचन्द्रसूरि, टाला शिथिलाचार । अकबर को प्रतिबोधकर, किया धर्म प्रचार ॥ ८ ॥ जिनके नामोल्लेख से, वासकक्षेप विधान । होती खरतरगच्छ में, नमूं क्षमाकल्याण ॥ पद्मविजय गणिवर प्रमुख, तपगच्छीय मुनिराज । जिनके संयम-ज्ञान पर, करते सब ही नाज ॥ ९॥ युग्मम् ॥ सुखसागर गणनाथ जी, खरतरगच्छ शृङ्गार । अधिपति मम समुदाय के, प्रणमूं बारंबार ॥ १० ॥ सुखसिन्धु के पाट पर, सरल-शान्त गणधार । भाग्यवान भगवानविभु पालक शुद्धाचार ॥ ११ ॥ तपसी छगन रहे सदा, तप-जप-साधन लीन। बावन दिन अनशन करी, देह करी निज क्षीण ॥ १२ ॥ तपी-जपी शुद्ध संयमी, त्रैलोक्य सिंधु महान। त्रिविध ताप को मेटकर, देते इच्छित दान ॥ १३ ॥ सरल शान्त अरु संयमी, सागर सम गंभीर। जिनहरिसागर मुनिपति, हरे करम की पीर ॥ १४ ।। धर्मबोध दाता गुरु, आनंद आनंद सार । उपकारी परिवार के, अद्भुत प्रवचनकार ॥ १५ ॥ मुखमंडल तेजोमयी, आगम-ज्ञान-निधान । प्रखर प्रवक्ता संयमी, चिन्तन-तत्त्व-प्रधान ॥ १६ ॥
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