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रचना-प्रशस्ति
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उपकारी मेरे गुरु, सफल किया निजनाम।। कविकुल के सम्राट सम, कवीन्द्रसूरि गुणधाम ॥ १७ ॥ युग्मम् उदयाब्धि प्रणमूं सदा, सरल शंभू खुशहाल । शांत चित्त से प्रभु भजे, कटे कर्म जंजाल ॥ १८ ॥ ज्योतिर्मय प्रज्ञापुरुष, सूरि कान्ति विधिदक्ष । वारक मिथ्या पंथ के, पोषक सुविहित पक्ष ॥ १९ ॥ प्रवचन-पटु गर्जन करे, सिंह केसरी सार । जिनके पुण्य प्रभाव का, कोई न पावे पार ॥ २० ॥ युग्मम् वर्तमान गणपति नमू, सूरि महोदय नाम । शुभचिन्तक हो संध के, करे स्वपरहित काम ॥ २१ ॥ गणिवर मणि महिमानिधि, तेजस्वी विद्वान । जिनके पुण्य प्रभाव से, बढ़े गच्छ की शान ॥ २२ ॥ अनुशास्ता बन गच्छ के, कर संयमरस सृष्टि । बेल बढ़ाकर गच्छ की, करे प्रेम की वृष्टि ॥ २३ ॥ युग्मम्
(गुरुवर्या-परम्परा) साध्वी प्रमुखा संघ की, उद्योतश्री शुभनाम । लक्ष्मीश्री शिष्या बनी, चारित्र गुण की धाम ॥ २४ ॥ सिंहश्रीजी सिंह सम, पाले व्रत असिधार । खरतरगच्छ प्रचारिका, शिष्यायें दी सार ॥ २५ ॥
[तर्ज—नाथ निरंजन भवभय भंजन-हरिगीतिका) जिसने देखा उसने परखा, कैसा अद्भुत जीवन था।
आत्मरमणता शीलसाधना, संयम सत्य-जवाहर था ॥ मुखमंडल पर ब्रह्मतेज की, आभा अनुपम थी रमती। प्राणिमात्र पर प्रेमवृष्टि कर, प्रेम नाम सार्थक करती ॥ २६ ॥ ज्ञानी-ध्यानी मौन साधिका, वचनसिद्ध शासन-ज्योति । भक्ति की पावन-गङ्गा में, कर्म-कीच निशदिन धोती ॥
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