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________________ रचना - प्रशस्ति चन्द्रप्रभसूरि-जिस प्रकार सुमेरु पर्वत ने रसातल में जाती हुई पृथ्वी की रक्षा की वैसे निर्मल मन वाले चन्द्रप्रभ मुनिपति ने अपनी व अपने गच्छ की रक्षा की । भद्रेश्वरसूरि–तत्पश्चात् कल्याण के भंडार श्री भद्रेश्वरसूरि हुए, जो अप्रतिस्पर्धी तप और यश के धारक थे । अजितसिंहसूरि (द्वितीय) – उनके शिष्य प्रशान्तमूर्ति श्री अजितसिंहसूरि हुए जो भौरों के हितकारी पुष्पों की तरह सदा गुणवानों के मूर्धन्य रहे। देवप्रभसूरि — उनके पट्ट पर मोह का मंथन करने वाले, आचार्यों की परम्परा में प्रथम स्थान रखने वाले, अगणित पदार्थ रूपी तरङ्गों के निर्माण में सागर समान, विद्वानों के द्वारा पुनः पुनः अभ्यसनीय ऐसे 'प्रमाणप्रकाश' ग्रन्थ के कर्ता देवप्रभसूरि हुए। जिनकी वाणी 'श्रेयांसचरित्र' रूप प्रबंध काव्य की रङ्गभूमि अद्भुत नर्तन कर किसको हर्षित नहीं करती ? ४४८ टीकाकार सिद्धसेनसूरि- प्रज्ञारूपी वैभव के विस्तार से बृहस्पति के समान, जिन्होंने शब्द रूपी ब्रह्म को शिष्य समूह के हृदय रूपी क्षेत्र में बोया तथा सतत अभ्यास रूपी वृष्टि से अङ्कुरित होता हुआ वह शब्द ब्रह्म वादी- विजय द्वारा सफल बनकर प्रमोददायी बना। जिनकी गद्यरचना रूपी तरङ्गों से निका गर्व नहीं गला ? जिनके रचना कौशल ने किस राजा को हर्षित नहीं किया ? जिनके व्रतपालन की कठोरता ने किसे आश्चर्य-मुग्ध नहीं बनाया ! अथवा जिनके सभी कार्य अति अद्भुत थे। ऐसे गुणवानों में श्रेष्ठ श्री देवप्रभसूरि ने प्रवचनसारोद्धार की यह 'तत्त्वज्ञानविकाशिनी' नाम की अतिस्पष्ट टीका रची। चैत्र शुक्ल अष्टमी के दिन पुष्प नक्षत्र में यह वृत्ति पूर्ण हुई । मङ्गल कामना तारा रूपी मुक्ताजाल से सुशोभित, चन्द्ररूपी कलश से युक्त आकाशरूपी मरकतमणि के छत्र में जब तक सुमेरु पर्वत दण्ड की तरह सुशोभित है तब तक यह वृत्ति जयवती रहे ॥१- १९ ॥ दोहा प्रशस्ति Jain Education International अधिक कहने से क्या ? शिष्य श्री ' सिद्धसेनसूरि' विक्रम संवत् १२४८ शासनपति महावीर जिन, गणधर गौतम स्वाम । श्रद्धायुत वन्दन करूं, पूरे वाञ्छित काम ॥ १ ॥ खरतर - वर धारक हुए, सूरि जिनेश्वर राय । चैत्यवास का नाशकर, सुविहित विधि दर्शाय ॥ २॥ अभयदेवसूरि गुरु, नव-अङ्ग टीकाकार । स्तंभनतीर्थ प्रकाश कर, जग में जय-जयकार ॥ ३ ॥ कर्ता पिण्डविशुद्धि के, जिनवल्लभ गणिनाथ । कालिदास सम कीर्तिधर, गण को किया सनाथ ॥ ४ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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