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द्वार २७१
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ले सकते हैं। इस तप में यथाशक्ति साधु आदि की आहारादि द्वारा भक्ति करना चाहिये । तप संपूर्ण होने पर जिनेश्वर परमात्मा के सम्मुख विशाल थाल में चाँदी के अथवा सादे चावलों से फल पत्र सहित अनेक शाखाओं से युक्त कल्पवृक्ष की रचना करनी चाहिये ॥१५४८-४९ ।।
२३. तीर्थंकरमाता–तीर्थंकर की माताओं की पूजापूर्वक किया जाने वाला तप तीर्थकरमातृ तप है। यह तप भाद्रपद मास की सुदी सातम से त्रयोदशी तक एकाशन करके पूर्ण होता है। यह तीन वर्ष तक इसी प्रकार किया जाता है ॥१५५० ।।
२४. समवसरण-यह तप भादवा वदी १ से प्रारम्भ होकर १६ दिन तक किया जाता है। यह तप क्रमश: एकाशन, नीवि, आयंबिल और उपवास द्वारा किया जाता है। समवसरण के एक-एक द्वार का आश्रय कर चार-चार दिन आराधना की जाती है। इस प्रकार ४ द्वार के १६ दिन होते हैं। यह तप ४ वर्ष में पूर्ण होता है । ६
में पूर्ण होता है। इस तप में समवसरण में विराजमान जिन प्रतिमा की पूजा अवश्य करनी चाहिये ॥१५५१ ॥
२५. अमावस्या यह तप दीपावली की अमावस्या से प्रारम्भ होकर सात वर्ष में पूर्ण होता है। यथाशक्ति उपवासादि से यह तप किया जाता है। जिस दिन उपवास हो उस दिन नन्दीश्वर द्वीप के पट की एवं देवलोक में स्थित जिन प्रतिमाओं के पट की यथाशक्ति पूजा करनी चाहिये ॥१५५२ ।।।
२६. पुण्डरीक-यह तप चैत्रसुदी पूनम से प्रारम्भ होकर १२ वर्ष में पूर्ण होता है। प्रतिवर्ष चैत्री पूर्णिमा को उपवास किया जाता है। अन्य मतानुसार यह तप सात वर्ष में ही पूर्ण हो जाता है। इस तप में मुख्यत: पुण्डरीक गणधर की प्रतिमा का विधिपूर्वक पूजन होता है। क्योंकि इस दिन तपाराधन का मुख्य कारण पुण्डरीक गणधर को केवलज्ञान की प्राप्ति ही है। श्रीपद्मप्रभचरित्र में पुण्डरीक गणधर के वर्णन के प्रसंग में जैसे कहा है
घणघाइकम्मकलुसं, पक्खालिय सुक्कझाणसलिलेणं ।
चेत्तस्स पुन्निमाए, संपत्तो केवलालोयं ॥ शुक्ल ध्यान रूपी जल से घनघाती कर्म रूपी कलुश को प्रक्षालित कर चैत्र सुदी पूर्णिमा को पुण्डरीक गणधर ने केवलज्ञान को प्राप्त किया ॥१५५३ ।।
२७. अक्षयनिधि—जिस तप की आराधना करने से खजाना सदा भरा हुआ रहे वह 'अक्षयनिधि' तप है। इस तप में जिनप्रतिमा के सम्मुख कलश स्थापन कर उसे प्रतिदिन एक-एक मुट्ठी अक्षत डालकर भरना इस तप की मुख्य क्रिया है। वर्तमान में यह तप भादवा वदी ४ से प्रारम्भ कर भादवा सुदी ४ तक अर्थात् १६ दिन में यथाशक्ति एकाशन द्वारा किया जाता है ॥१५५४ ।।
२८. चन्द्रप्रतिमा चन्द्रकला की तरह जिस तप में हानि-वृद्धि होती रहती है वह तप चन्द्रप्रतिमा या चन्द्रायण कहलाता है। यह तप दो तरह से होता है—यवमध्यरीति से व वज्रमध्यरीति से।
यवमध्य—'जौ' की तरह मध्य में स्थूलतप व अन्त में सूक्ष्म तप है जिसमें यह यवमध्या चन्द्रप्रतिमा है। जैसे, चन्द्र की कला सुदी १ से प्रतिदिन बढ़ते-बढ़ते पूर्णिमा को पूर्ण हो जाती है तथा वदी एकम Jain Education International For Private & Personal Use Only
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