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________________ प्रवचन - सारोद्धार । यहाँ प्रतिपदा से यावत् अमावस्या तक तथा अन्यत्र 'इय जाव पन्नरस पुन्निमासु कीरंति जत्थ उववासा' इस पाठ के अनुसार पूर्णिमा तक करने का उल्लेख है। इससे ज्ञात होता है कि यह तप कृष्णपक्ष या शुक्लपक्ष दोनों में प्रारम्भ किया जा सकता है। इस तप के १२० उपवास होते हैं। इसे भाषा में 'पखवासा' तप कहते हैं । १५४१ ॥ १६. रोहिणी - रोहिणी- देवताविशेष, उसकी आराधना के लिये किया जाने वाला तप रोहिणी तप है । जिस दिन रोहिणी नक्षत्र होता है उस दिन उपवास किया जाता है। इस प्रकार यह तप सातवर्ष और सात महीने में पूर्ण होता है। उपवास के दिन वासुपूज्य स्वामी की पूजा आदि करना चाहिये । वासुपूज्य स्वामी की मूर्ति की प्रतिष्ठा कराना चाहिये । वर्तमान में इस तप को ग्रहण करने की परंपरा यह है कि अक्षयतृतीया को रोहिणी नक्षत्र होने पर यह तप प्रारम्भ किया जाता है || १५४२ ।। ४२९ १७. श्रुतदेवता— श्रुतदेवता की आराधना निमित्त किया जाने वाला तप । यह तप एकादशी के दिन मौनपूर्वक उपवास करके किया जाता है। यह तप ११ महीने तक होता है । इसी तरह नेमिनाथ परमात्मा की अधिष्ठायिका का अम्बामाता का तप भी होता है । यह तप पाँच पंचमी को एकाशनादि तप करके नेमिनाथ व अंबा देवी की पूजा भक्तिपूर्वक करना चाहिये ।। १५४३ ।। १८. सर्वांगसुन्दर — जिस तप की आराधना से सभी अंग सुन्दर मिलते हैं वह तप 'सर्वांगसुन्दर' कहलाता है । यह तप शुक्लपक्ष में प्रारम्भ किया जाता है। इस तप में एकान्तर ८ उपवास तथा पारणे में आयंबिल होता है । तप करते हुए क्षमा, मृदुता, सरलता रखना, तीर्थकर परमात्मा की पूजा, सुपात्रदान आदि करना आवश्यक है। सभी अंग सुन्दर मिलना इस तप का आनुषंगिक फल है वास्तविक फल तो सभी तपों का मोक्ष है || १५४४ ॥ १९. निरुजशिख - निरुज रोगों का अभाव । शिखा = शिखा की तरह वही है मुख्य फल जिसका अर्थात् आरोग्यरूप मुख्य फल को उद्देश्य करके किया जाने वाला तप । इस तप में भी सर्वांगसुन्दर तप की तरह ८ उपवास व पारणे ८ आयंबिल होते हैं । अन्तर इतना है कि यह तप कृष्णपक्ष में होता है। इस तप में जिन पूजादि के अतिरिक्त रोगी की सेवा, उन्हें दवा, पथ्य देना आदि कार्य अवश्य करणीय है || १५४५ ॥ = २०. परमभूषण — इन्द्र, चक्रवर्ती आदि के योग्य मुकुट, कुण्डल, हार, कड़े आदि आभूषणों की प्राप्ति के उद्देश्य से जो तप किया जाता है वह परमभूषण तप है । इस तप में निरन्तर अथवा शक्ति न हो तो एकान्तर ३२ आयंबिल होते हैं। तप के समापन पर परमात्मा को यथाशक्ति मुकुट, तिलक आदि आभूषण चढ़ाना, सुपात्रदान आदि करना चाहिये || १५४६ ॥ २१. आयतिजनक - भविष्य में इच्छित फल को देने वाला तप । यह तप भी परमभूषण तप की तरह ३२ आयंबिल से पूर्ण होता है। इस तप में वन्दन, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, वैयावृत्त्य आदि सभी धर्मक्रियायें वीर्योल्लासपूर्वक करनी चाहिये || १५४७ ॥ २२. सौभाग्यकल्पवृक्ष - सौभाग्य रूप फल देने में कल्पवृक्ष तुल्य तप सौभाग्य कल्पवृक्ष तप कहलाता है । यह तप चैत्रमास में एकान्तर उपवास करके पूर्ण किया जाता है । पारणे में सर्वरस - भोजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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