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________________ द्वार २७१ ४२६ Download अर्थात् प्रथम पंक्ति के अंत में जो १६ का अंक है, दूसरी पंक्ति का प्रारंभ उसी से हो जाता है। दूसरी बार १६ उपवास करने की आवश्यकता नहीं होती। चारों परिपाटी में पारणे का स्वरूप पूर्ववत् समझना चाहिये ।।१४२३-२४ ॥ ९. रत्नावली-रत्नावली, गले में धारण करने योग्य आभरण (हार) विशेष का नाम है। इसके दोनों छोर प्रारंभ से सूक्ष्म फिर स्थूल, स्थूलतर सुवर्णमय अवयवद्वय से युक्त होते हैं। तत्पश्चात् अनार के पुष्प की तरह दोनों ओर दो (थेगडे) होते हैं उससे आगे दोनों ओर सरयुगल होता है। पश्चात् दोनों सरों के मध्य में सुन्दर पदक होता है। जिस तप की संख्या को यथाविधि पट्ट पर लिखने से रत्नावली का आकार बनता हो, वह तप भी 'रत्नावली' कहा जाता है। इस तप के आराधन का क्रम इस प्रकार होता है ITH सरिका काहलिका --- दाडिमपुष्प । . पदक -- गा ht ननन् काहलिका दाडिमपुष्प सरिका यह एक परिपाटी है। ऐसी ४ परिपाटी करने पर तप संपूर्ण होता है। ४ परिपाटी में पारणे का स्वरूप पूर्ववत् होता है। काहलिका दाडिमपुष्प सरयुगल पदक कुल उपवास पारणा एक परिपाटी के १२ उपवास ४८ उपवास २७२ उपवास १०२ उपवास ४३५ उपवास ८८ ५२२ दिन अर्थात् १ वर्ष ५ मास व १२ दिन में एक परिपाटी पूर्ण। ४ परिपाटी के ५२२ x ४ = २०८८ दिन होते हैं अर्थात् ५ वर्ष ९ महीने व १८ दिन में यह तप पूर्ण होता है। = ||१५२५-२७॥ १०. कनकावली-कंठ में पहिनने योग्य मणि जड़ित, सुवर्णमय आभूषण विशेष । जिस तप का आकार यथाविधि आलेखन करने पर कनकावली की तरह होता हो वह तप भी कनकावली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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