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________________ द्वार २७१ ४२४ २. योगशुद्धि-मन, वचन और काया इन तीनों योगों की शुद्धि करने वाला तप 'योगशुद्धि' तप है। इस तप में क्रमश: नीवि, आयंबिल और उपवास होता है। इस प्रकार तीन बार किया जाता है अत: यह तप ३ x ३ = ९ दिन में पूर्ण होता है ॥१५१० ।। ३. रत्नत्रय-ज्ञान-दर्शन-चारित्र की शुद्धि करने वाला तप। इस तप में प्रत्येक के ३-३ उपवास होते हैं। ज्ञानशुद्धि के लिये किये जाने वाले ३ उपवास के दिनों में ज्ञानपूजा, आगमों की सुरक्षा, ज्ञानी परुषों की एषणीय वस्त्र. अन्न. पान आदि के द्वारा भक्ति अवश्य करना चाहिये। दर्शनपद की आराधना करते समय उपवास के साथ दर्शन प्रभावक सम्मति आदि ग्रन्थों की, सद्गुरुओं की पूजा करनी चाहिये। चारित्र पद के आराधन में भी ३ उपवासपूर्वक चारित्रात्माओं की भक्ति, पूजा आदि करना चाहिये ॥१५११ ।। ४. कषायविजय-क्रोध, मान, माया व लोभ । इन चारों कषायों पर विजय पाने के लिये किया जाने वाला तप। इस तप में क्रमश: एकाशन, नीवि, आयंबिल व उपवास किये जाते हैं। एक कषाय विजय में ४ दिन, इस प्रकार ४ कषाय-विजय में ४ x ४ = १६ दिन तक तप होता है ॥१५१२ ।। ५. कर्मसूदन–ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों का नाश करने वाला तप 'कर्मसूदन' है। इस तप में एक-एक कर्म को उद्देश्य करके आठ-आठ दिन तक क्रमश: उपवास, एकाशन, एकदाने का एकाशन, एकलठाणा, दत्ति, नीवि, आयंबिल व आठ कवल का एकाशन होता है। इस प्रकार यह तप ८ x ८ = ६४ दिन में पूर्ण होता है। इस तप की पूर्णाहुति होने पर परमात्मा का स्नात्र, विलेपन, पूजन, अंगरचना आदि करना चाहिये । परमात्मा के सम्मुख विशिष्ट नैवेद्य धरकर उसके बीच सुवर्णमयी कुल्हाड़ी रखना चाहिये। यह कुल्हाड़ी कर्मरूपी वृक्ष को छेदन करने का प्रतीक है ॥१५१३-१४ ।। ६. लघुसिंहनिष्क्रीड़ित—जिस तप की आराधना का क्रम सिंह के गमन की तरह हो वह सिंहनिष्क्रीड़ित तप है। जैसे सिंह आगे चलता जाता है और बीच-बीच में मुड़कर पुन: पीछे भी देखता जाता है वैसे इस तप में आगे बढ़कर पुन: पीछे का तप किया जाता है अत: इसका सिंहनिष्क्रीड़ित नाम सार्थक है। महासिंहनिष्क्रीड़ित की अपेक्षा जो तप छोटा हो वह लघु सिंहनिष्क्रीड़ित है। इस तप में प्रथम १ उपवास तत्पश्चात् २ पुन: पूर्वकृत १ उपवास किया जाता है। इस प्रकार आगे बढ़कर पुन: पीछे गमन होता है। इसमें तपाराधना इस प्रकार होती है। लघुसिंहनिष्क्रीड़ित तप: उपवास-१-२-१-३-२-४-३-५-४-६-५-७-६-८-७-९-८९-७-८-६-७-५-६-४-५-३-४-२-३-१-२-१ यह प्रथम परिपाटी है। इस प्रकार ४ बार करने से यह तप संपूर्ण होता है। उपवास के बीच सर्वत्र पारणा समझना। इस प्रकार इस तप में एक परिपाटी के कुल उपवास १५४ व पारणा ३३ होते हैं। संपूर्ण तप १५४ + ३३ = १८७ x ४ = ७४८ दिन में होता है। अर्थात् इस तप को पूर्ण होने में २ वर्ष २८ दिन लगते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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