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________________ प्रवचन-सारोद्धार ४२३ प्रतिदिन एक-एक कला बढ़ने से पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा संपूर्ण कलायुक्त बन जाता है वैसे प्रतिपदा के दिन एक कवल ग्रहण करके द्वितीया से पूर्णिमा पर्यन्त एक-एक कवल की वृद्धि करते हुए पूर्णिमा को पन्द्रह कवल होते हैं। कृष्ण पक्ष में जैसे चन्द्रमा की प्रतिदिन एक-एक कला क्षीण होती जाती है वैसे अमावस्या पर्यन्त एक-एक कवल न्यून करते हुए अन्त में अमावस के दिन एक कवल ग्रहण करना शेष रहता है। यह तप यवमध्या चन्द्रप्रतिमा तप कहलाता है। यह एक मास में पूर्ण होता है। तत्पश्चात् वज्रमध्या चन्द्रप्रतिमा तप कहा जायेगा ।।१५५५-५८ ॥ प्रतिपदा के दिन पन्द्रह कवल पश्चात् एक-एक कवल न्यून करते हुए अमावस्या तथा सुदी एकम के दिन एक कवल ग्रहण करना। दूज आदि को पुन: एक-एक कवल की वृद्धि करते हुए पूर्णिमा को पन्द्रह कवल ग्रहण करना। इस प्रकार यवमध्या और वज्रमध्या दोनों प्रतिमायें बताई गई हैं ।।१५५९-६० ॥ सप्त-सप्तमिका तप के प्रथम सप्तक में प्रतिदिन एक दत्ति ग्रहण करना। जैसे-जैसे सप्तक बढ़ता जाता है वैसे-वैसे दत्ति भी बढ़ती जाती है अर्थात् सातवें सप्तक में प्रतिदिन सात दत्ति का ग्रहण होता है। इस प्रकार उनचास दिन में सप्तसप्ततिका तप पूर्ण होता है। इस प्रकार अष्टअष्टमिका, नवनवमिका, दसदसमिका प्रतिमा में दत्ति की अभिवृद्धि के साथ अष्टक, नवक और दशक की वृद्धि होती है। इस प्रकार चौसठ, इक्यासी तथा सौ दिन में ये प्रतिमायें पूर्ण होती हैं ।।१५६१-६३॥ एक...दो आदि आयंबिलों की अभिवृद्धि पूर्वक तथा अन्त में उपवासपूर्वक सौ आयंबिल के द्वारा आयंबिल वर्धमान नामक महातप पूर्ण होता है। इसमें चौदह वर्ष, तीन मास तथा बीस दिन लगते हैं ॥१५६४-६५ ।। गुणरत्नसंवत्सर तप सोलह महीनों में पूर्ण होता है। इसके प्रथम मास में एकान्तर उपवासपूर्वक दिन में उत्कटुक आसन से बैठना तथा रात्रि में निर्वस्त्र होकर वीरासन में रहना। द्वितीयादि मास में एक-एक उपवास की अभिवृद्धि करते हुए उपवास करना। इस प्रकार सोलहवें महीने में सोलह उपवास करना। अनुष्ठान की दृष्टि से पहिले महीने में जो-जो अनुष्ठान होते हैं वे सभी अनुष्ठान संपूर्ण तप में किये जाते हैं। यह तप बीस दिन न्यून पाँच सौ दिन में पूर्ण होता है ॥१५६६-६९ ।। अंग-उपांग, चैत्यवन्दन, पंचमंगल आदि के उपधानों की विधि आगम से ज्ञातव्य है ॥१५७० ॥ -विवेचन तप = जो दुष्कर्मों को जलाता है वह तप है। इसके अनेक भेद हैं। १. इन्द्रियजय-जिनधर्म का मूल उद्देश्य है इन्द्रियों पर विजय पाना । अत: सर्वप्रथम इन्द्रियजय तप ही बताया जाता है। इन्द्रियाँ ५ हैं। एक-एक इन्द्रिय पर विजय पाने हेतु ५-५ दिन तप किया जाता है। इसमें क्रमश: पुरिमढ, एकाशन, नीवि, आयंबिल तथा पाँचवें दिन उपवास होता है। इस प्रकार ५ बार करने से कुल ५ x ५ = २५ दिन में यह तप पूर्ण होता है। • यद्यपि सभी तपों का मूल उद्देश्य इन्द्रियजय है पर पूर्वाचार्यों के द्वारा इस तप को विशेष रूप से इसीलिये करने का कहा है अत: इसका यह नाम सार्थक है ॥१५०९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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