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द्वार २७१
सातवीं में नौ, दस, ग्यारह, पाँच, छ:, सात और आठ उपवास होते हैं। इस तप में उपवास के दिन तीन सौ बाणुं तथा पारणे के दिन उनचास हैं। इस प्रकार भद्रादि तप का वर्णन पूर्ण हुआ॥१५३७-४० ।।
एकम का एक उपवास, दूज के दो उपवास यावत् अमावस्या के पन्द्रह उपवास करने से सर्वसौख्यसंपत्ति तप होता है ।।१५४१ ।।
रोहिणी नक्षत्र के दिन वासुपूज्य स्वामी की पूजा पूर्वक सात वर्ष और सात माह तक उपवास करने से रोहिणी तप पूर्ण होता है ।।१५४२॥
ग्यारह एकादशी को मौन व श्रुतदेवता की पूजा पूर्वक उपवास करने से श्रुतदेवता तप होता है ॥१५४३ ।।
जिनेश्वर देव की पूजा एवं क्षमादि का अभिग्रह रखते हुए एकान्तरित उपवास करना तथा पारणे में आयंबिल करना सर्वांगसुन्दर तप है। यह तप शुक्ल-पक्ष में होता है ।।१५४४ ।।
निरुजशिख तप की विधि 'सर्वांग सुन्दर' तप के अनुसार ही है। इतना अन्तर है कि यह तप कृष्ण पक्ष में होता है तथा इस तप में रोगी की सेवा करने का अभिग्रह विशेष रूप से धारण किया जाता है ।।१५४५ ॥
परमभूषण तप में निरन्तर अथवा एकान्तर बत्तीस आयंबिल होते हैं। तप की पूर्णाहुति पर परमात्मा की प्रतिमा पर मुकुट, तिलक आदि आभूषण चढ़ाना होता है ॥१५४६ ।।।
आयतिजनक तप भी ‘परमभूषण' तप के अनुसार ही होता है। परन्तु इसमें वन्दन प्रतिक्रमणादि सभी क्रियायें शक्ति छुपाये बिना उत्साहपूर्वक करना चाहिये ।।१५४७ ।।
चैत्र महीने में एकान्तर उपवास करना तथा पारणे में सर्वरस ग्रहण करना यह सौभाग्यकल्पवृक्ष तप है। इस तप में यथाशक्ति साधु भगवन्तों को दान देना चाहिये तथा तप की समाप्ति पर परमात्मा के सम्मुख अनेकविध फलों से सुशोभित शाखाओं वाला कल्पवृक्ष यथाशक्ति सादे चावलों का अथवा चाँदी-सोने के चावलों का बनाना चाहिये ।।१५४८-४९ ।।
तीर्थकर माता तप में, तीर्थंकर की माता की पूजा करते हुए भाद्रपद मास में सात एकाशन करके किया जाता है ।।१५५० ॥
समवसरण में बिराजमान प्रभु की पूजापूर्वक सोलह एकाशन आदि के द्वारा समवसरण तप किया जाता है। यह तप भाद्रपद मास में किया जाता है। चार वर्ष में पूर्ण होता है।।१५५१ ।।
अमावस्या तप, नन्दीश्वरद्वीप के पट की पूजापूर्वक अमावस्या के दिन यथा-शक्ति उपवासादि तप करके किया जाता है ।।१५५२ ।।
___पुण्डरीक तप, पुण्डरीक गणधर की पूजापूर्वक एकाशनादि के द्वारा चैत्र सुदी पूर्णिमा से प्रारंभ किया जाता है ।।१५५३ ॥
परमात्मा के सम्मुख कलश की स्थापना करके प्रतिदिन एक मुट्ठी चावल उसमें डालना। जितने दिन में कलश भर जाये उतने दिन पर्यंत यथा शक्ति तप करना, अक्षयनिधि तप है ।।१५५४॥
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