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प्रवचन-सारोद्धार
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(ii) मनुष्य सम्बन्धी—मनुष्य सम्बन्धी आस्वाध्यायिक भी चार प्रकार का है। चर्म, रुधिर, मांस व हड्डी।
पूर्वोक्त चारों में से हड्डी को छोड़कर शेष तीन अस्वाध्यायिक सौ हाथ के भीतर पड़े हो तो वहाँ एक अहोरात्रि पर्यंत स्वाध्याय करना नहीं कल्पता।
मनुष्य या तिर्यंच सम्बन्धी रक्त यदि बहुत समय तक पड़ा रहने से स्वभाव से और वर्ण से विवर्ण हो गया हो, जैसे खेर की लकड़ी के सत्त्व की तरह, तो वहाँ स्वाध्याय करने में कोई दोष नहीं है। अन्यथा आस्वाध्यायिक होता है ॥१४६९ ॥
रजस्वला स्त्री को तीन दिन पर्यंत स्वाध्याय करना नहीं कल्पता। यदि किसी स्त्री के तीन दिन के पश्चात् भी अशुचि रहती हो तो स्वाध्याय किया जा सकता है, कारण उस समय रुधिर विवर्ण हो जाता है।
यदि पुत्र जन्मा हो तो सात दिन का अस्वाध्याय । पुत्री जन्मी हो तो आठ दिन का अस्वाध्याय । तत्पश्चात् स्वाध्याय करना कल्पता है । पुत्र में शुक्र की अधिकता और पुत्री में रक्त की अधिकता होती है। अत: अस्वाध्याय काल का अन्तर पड़ता है ।।१४७० ॥
सौ हाथ के भीतर यदि बालक आदि का दाँत गिरा हो तो उसे प्रयत्नपूर्वक देखना चाहिये। मिल जाये तो उसे दूर परठ देना चाहिये। यदि खोजने पर भी न मिले तो स्थान शुद्धि मानकर वहाँ स्वाध्याय किया जा सकता है। किसी का मत है कि अस्वाध्याय निवारण हेतु कायोत्सर्ग करके स्वाध्याय करना चाहिये।
दाँत के सिवाय अन्य अंगोपांग सम्बन्धी हड्डी यदि सौ हाथ के भीतर पड़ी हो तो बारह वर्ष तक वहाँ स्वाध्याय करना नहीं कल्पता। यदि हड्डियाँ आग से जल गई हों तो सौ हाथ के भीतर भी स्वाध्याय किया जा सकता है। अनुप्रेक्षा स्वाध्याय करने का निषेध कहीं भी नहीं है ॥१४७१ ।।
२६९ द्वार:
नन्दीश्वर द्वीप
विक्खंभो कोडिसयं तिसट्ठिकोडी उ लक्खचुलसीई। नंदीसरो पमाणंगुलेण इय जोयणपमाणो ॥१४७२ ॥ एयंतो अंजणरयणसामकरपसरपूरिओवंता। बालतमालवणावलिजुयव्व घणपडलकलियव्व ॥१४७३ ॥ चउरो अंजणगिरिणो पुव्वाइदिसासु ताणमेक्केक्को । चुलसीसहस्सउच्चो ओगाढो जोयणसहस्सं ॥१४७४ ॥
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