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________________ ४०२ द्वार २६८ १. रक्त-स्वाध्याय भूमि से साठ हाथ के भीतर पड़ा हुआ रक्त यदि जल के प्रवाह में बह जाये तो वहाँ ३ प्रहर के पश्चात् स्वाध्याय करना कल्पता है। २. मांस-स्वाध्याय भूमि से साठ हाथ के भीतर मांस धोकर बाहर ले गये हों तो भी वहाँ तीन प्रहर तक स्वाध्याय करना नहीं कल्पता, कारण धोते समय मांस के कुछ कण वहाँ गिरने की संभावना रहती है। इस प्रकार मांस पकाने में भी समझना चाहिये। स्वाध्याय भूमि से साठ हाथ के बाहर मांस धोने व पकाने पर वहाँ स्वाध्याय करने में कोई दोष नहीं होता। अन्यमत-बिल्ली द्वारा मारे गये चूहे का शरीर यदि बिखरा न हो और उसे मुँह में दबाकर या निगलकर बिल्ली अन्यत्र चली गई हो तो उस स्थान पर साधु को स्वाध्याय करना कल्पता है। मतान्तर-कौन जानता है कि कलेवर लेशमात्र भी बिखरा या न बिखरा हो? अत: वहाँ तीन प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिये। मतान्तर–जहाँ बिल्ली आदि स्वत: मरी हो अथवा दूसरे ने मारी हो पर अभी तक उसका कलेवर जरा भी बिखरा न हो तो वहाँ स्वाध्याय करना कल्पता है। यदि बिखर जाये तो अस्वाध्यायिक होता है। ऐसा किसी का मानना अयुक्त है, कारण शोणित, मांस, चर्म व अस्थि चारों की उपस्थिति में स्वाध्याय करना नहीं कल्पता। कलेवर भी तो इस दृष्टि से अस्वाध्यायिक है। अत: कलेवर बिखरा न हो तो भी वहाँ स्वाध्याय करना नहीं कल्पता ॥१४६६ ॥ ३. अण्डा-स्वाध्याय भूमि में साठ हाथ के भीतर अंडा गिर जाये पर फूटे नहीं, तो उसे दूर फेंक देने के पश्चात् वहाँ स्वाध्याय करना कल्पता है। यदि अंडा फूट जाये तो वहाँ स्वाध्याय करना नहीं कल्पता है। यदि भूमि खोदकर या साफ करके कललबिन्दु सर्वथा स्वच्छ कर दिये जायें तो भी । वहाँ तीन प्रहर तक स्वाध्याय करना नहीं कल्पता। यदि अंडा कपड़े में गिरकर फूट जाये तो उसे स्वाध्याय भूमि से साठ हाथ बाहर ले जाकर धोने के पश्चात् वहाँ स्वाध्याय करना कल्पता है। अंडे का रस या रक्त मक्खी का पाँव डूबे, इतना भी कहीं पड़ा हो तो वहाँ स्वाध्याय करना नहीं कल्पता ॥१४६७ ॥ जरायु रहित प्रसव वाले हथिनी आदि की प्रसूति होने पर तीन प्रहर तक स्वाध्याय करना नहीं कल्पता। अहोरात्रि के बाद समीप में प्रसूति हुई हो तो भी स्वाध्याय करना कल्पता है। - गाय आदि की प्रसूति होने के पश्चात् जब तक 'जरायु' न गिरे तब तक अस्वाध्याय तथा गिरने के पश्चात् तीन प्रहर तक अस्वाध्याय । अस्वाध्यायिक के बिन्दु यदि राजपथ पर गिरे हों तो साठ हाथ के भीतर भी स्वाध्याय करना कल्पता है। कारण राजमार्ग पर इतना गमनागमन रहता है कि अशुचि के बिन्दु तुरन्त नष्ट हो जाते हैं। इसमें जिनाज्ञा ही प्रमाण है। यदि तिर्यंच सम्बन्धी अस्वाध्यायिक राजमार्ग से हटकर साठ हाथ के भीतर कहीं पड़ा हो तो वर्षा के प्रवाह में बहने के बाद अथवा आग द्वारा जलने के बाद ही वहाँ स्वाध्याय करना कल्पता है अन्यथा नहीं ॥१४६८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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