SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 411
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९४ अंडगमुज्झिय कप्पे न य भूमि खणंति इयरहा तिन्नि । असझाइयप्पमाणं मच्छियपाया जहिं बुड्डे ॥ १४६७ ॥ अजराउ तिन्नि पोरिसि जराउयाणं जरे पडे तिन्नि । यह बिंदुपडिए कप्पे बूढे पुणो नत्थि ॥ १४६८ ॥ माणुस्सयं चउद्धा अट्ठि मोत्तूण सयमहोरत्तं । परियावन्नविवन्ने सेसे तिय सत्त अट्ठेव ॥ १४६९ ॥ रतुकडा उ इत्थी अट्ठ दिणे तेण सत्त सुक्कहिए । तिण्ण दिणाण परेण अणोउगं तं महारतं ॥१४७० ॥ दंते दिट्ठे विचिण सेसट्ठि बारसेव वरिसाई । दड्ढट्ठीसु न चेव य कीरइ सज्झायपरिहारो ॥१४७१ ॥ -गाथार्थ अस्वाध्याय— अस्वाध्याय के पाँच प्रकार हैं- १. संयमघाती २. उत्पात ३. सादिव्य ४ व्युद्ग्रह एवं ५. शारीरिक । संयमघाती स्वाध्याय के तीन भेद हैं- १. महिका २. सचित्तरज और ३. वर्षा । इनमें महिका गर्भमास में होती है। किंचित् ताम्रवर्णी रज सचित्तरज है। वर्षा तीन प्रकार की है१. बुदबुद् २. बुबुद्रहित एवं ३. जलस्पर्शिकारूप ।। १४५०-५१ ।। द्रव्य से अस्वाध्यायिक द्रव्य, क्षेत्र से जितने क्षेत्र में अस्वाध्यायिक हो, काल से जितने काल तक अस्वाध्यायिक रहे और भाव से श्वासोच्छ्वास लेना, पलक झपकना आदि का त्याग करना चाहिये ।। १४५२ ।। पशुवृष्टि, मांसवृष्टि, रुधिरवृष्टि, केशवृष्टि, पत्थरवृष्टि, रजोद्घात आदि अस्वाध्यायिक हैं । इनमें मांस और रुधिरवृष्टि में एक अहोरात्र का अस्वाध्याय होता है । शेष में जितने समय तक वृष्टि हो उतने समय तक सूत्र- स्वाध्याय का त्याग करना चाहिये ।। १४५३ ।। कुछ पीले वर्ण की अचित्तरज पाँशु है । दिशाओं का रजस्वला होना रजोद्घात है । ये तीनों वायु सहित या निर्वात जब तक रहे तब तक अस्वाध्याय होती है ।। १४५४ ।। गान्धर्वनगर, दिग्दाह, विद्युत्, उल्कापात, मेघगर्जन, यूपक, यक्षादीप्त, इनमें मेघगर्जना में दो पोरिसी तक अस्वाध्याय होती है और शेष में एक पोरिसी की अस्वाध्याय होती है ।। १४५५ ।। छिन्नमूला अग्नि दिग्दाह है। रेखायुक्त प्रकाश उल्का है । सन्ध्या जिसके कारण दिखाई नहीं देती वह सन्ध्या छेदावरण है। इसे यूपक कहते हैं । यह सुदी पक्ष की दूज, तीज और चौथ को होता है ।। १४५६ ॥ Jain Education International द्वार २६८ चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, निर्घात और गुंजित में एक अहोरात्र का अस्वाध्याय होता है । चार सन्ध्या, प्रतिपदा में होने वाले महोत्सव तथा अन्य भी महोत्सव जो जहाँ होते हों इनमें निश्चित रूप से अस्वाध्याय होती है ।। १४५७ ।। For Private & Personal Use Only 4 www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy