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द्वार २६६
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गेविज्जणुत्तरेसुं अप्पवियारा हवंति सव्वसुरा। सप्पवियारठिईणं अणंतगुणसोक्खसंजुत्ता ॥१४४० ॥
-गाथार्थदेवों का प्रविचार–प्रथम दो देवलोक में कायप्रविचार है। तीसरे-चौथे देवलोक में स्पर्शप्रविचार है। पाँचवें-छटे में रूप-प्रविचार, सातवें-आठवें में शब्द-प्रविचार तथा शेष चार में मनप्रविचार है। ऊपरवर्ती देवों में प्रविचार नहीं है ।।१४३९ ॥
नवग्रैवेयक एवं पाँच अनुत्तर के सभी देव मैथुन संज्ञा से रहित हैं। अप्रविचारी देव सप्रविचारी देवों की अपेक्षा अनन्तगुण सुखसंपन्न हैं ।।१४४० ।।
-विवेचन'द्वौ कल्पौ' यहाँ कल्प शब्द मर्यादा का वाचक है। कल्प = मर्यादा, व्यवहार अर्थात् जहाँ सेव्य-सेवक भाव, ऊँच-नीच आदि का व्यवहार हो, वह कल्प है। वहाँ रहने वाले देव कल्पस्थ कहलाते हैं।
प्रविचार का अर्थ है मैथुन क्रिया ।
१. भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष् एवं सौधर्म-ईशान देवलोक के देव अत्यन्त क्लेशकारक प्रबल पुरुषवेद के उदय से मनुष्य की तरह मैथुनक्रिया में आसक्त होकर सर्वांगीण कायक्लेशजन्य स्पर्श सुख को अनुभव करके ही तृप्त होते हैं, अन्यथा नहीं।
काय-प्रविचार = मनुष्य की तरह शारीरिक सम्बन्ध द्वारा जो देव मैथुन सेवन करते हैं, वे काय-प्रविचारी कहलाते हैं।
२. सनत्कुमार और महेन्द्र देवलोक के देव, देवी के स्पर्श द्वारा मैथुन का सुख मानते हैं। इन देवों को जब मैथुन की अभिलाषा होती है तब वे देव देवियों के अंग-स्पर्श के द्वारा अपनी इच्छापूर्ति करते हैं। देवियाँ भी देवों के स्पर्शजन्य दिव्य प्रभाव से अपने शरीर में शुक्र के पुद्गलों का संचार होने से अपार सुख का अनुभव करती हैं। इस प्रकार ऊपर के देवों का भी समझना। ये देव स्पर्श प्रविचारी
३. ब्रह्मलोक और लान्तक देवलोक के देव देवियों का रूप देखकर मैथुन सुख की अनुभूति करते हैं। अर्थात् देवियों के उन्मादकारी रूप का दर्शन करके ही यहाँ के निवासी देव वासनापूर्ति का आनन्द प्राप्त कर लेते हैं। ये देव रूप-प्रविचारी हैं।
४. शुक्र और सहस्रार इन दो देवलोक के देव देवियों के शब्द सुनकर अर्थात् देवियों के विलासयुक्त गीत, हास्य, वार्तालाप, आभूषणों की आवाज आदि सुनकर अवस्थित देव उपशांत वेदी बनते हैं। ये देव शब्द प्रविचारी हैं।
५. आनत, प्राणत, आरण व अच्युत देवलोक के देव मानसिक विचारों से ही मैथुन का आनन्द लेते हैं अत: ये मन:प्रविचारी हैं। अर्थात् इन देवों को जब वेदोदय होता है तब वे देवियों के मन को
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