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________________ प्रवचन-सारोद्धार ३८९ अपने चिन्तन का विषय बनाते हैं। देवियाँ उनके संकल्प से अनभिज्ञ होने पर भी तथाविध स्वभाववश अद्भुत शृंगारादि करके आन्दोलित मन वाली होकर, मन द्वारा ही भोग के लिये तत्पर बनती हैं। इस प्रकार परस्पर मानसिक संकल्प की स्थिति में दैविक प्रभाव से देवियों में शुक्र के पुद्गलों का संक्रमण होता है। इससे दोनों को कायिक वासनापूर्ति की अपेक्षा अनंतगुण अधिक सुख की अनुभूति होती है। ग्रैवेयक आदि ऊपर के देवों में स्त्री-सेवन सर्वथा नहीं होता। ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानवासी देव वीतराग प्राय: होने से अनन्तसुख सम्पन्न होते हैं। (यद्यपि ये देवता अप्रविचारी हैं, तथापि विरतिधारी न होने से ब्रह्मचारी नहीं कहलाते ।) शब्द रूप, स्पर्श आदि के द्वारा प्रविचार करने वाले देवता, अपनी शक्ति द्वारा अपने वीर्य पुद्गलों को देवी के शरीर में संक्रमित करते हैं, जिससे देवी को सुखानुभूति होती है ॥१४३९-४० ॥ २६७ द्वार : कृष्णराजी पंचमकप्पे रिहॅमि पत्थडे अट्ठकण्हराईओ। समचउरंसक्खोडयठिइओ दो दो दिसिचउक्के ॥१४४१ ॥ पुव्वावरउत्तरदाहिणाहि मज्झिल्लियाहि पुट्ठाओ। दाहिणउत्तरपुव्वा अवरा बहिकण्हराईओ ॥१४४२ ॥ पुव्वावरा छलंसा तंसा पुण दाहिणुत्तरा बज्झा। अब्भंत्तरचउरंसा सव्वावि य कण्हराईओ ॥१४४३ ॥ आयामपरिक्खेवेहिं ताण अस्संखजोयणसहस्सा। संखेज्जसहस्सा पुण विक्खंभे कण्हराईणं ॥१४४४ ॥ ईसाणदिसाईसुं एयाणं अंतरेसु अट्ठसुवि। अट्ठ विमाणाई तह तम्मझे एक्कगविमाणं ॥१४४५ ॥ अच्चि तहऽच्चिमालिं वइरोयण पभंकरे य चंदाभं । सूराभं सुक्काभं सुपइट्ठाभं च रिट्ठाभं ॥१४४६ ॥ अट्ठायरट्ठिईया वसंति लोगंतिया सुरा तेसुं । सत्तट्ठभवभवंता गिज्जंति इमेहिं नामेहिं ॥१४४७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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