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________________ ३७८ द्वार २६२ तिन्नेव हुंति आई एगुत्तरवड्डिया नवसयाओ। ओगाहिऊण लवणं तावइयं चेव विच्छिन्ना ॥१४२८ ।। संति इमेसु नरा वज्जरिसहनारायसंहणणजुत्ता। समचउरंसगसंठाणसंठिया देवसमरूवा ॥१४२९ ॥ अट्ठधणुस्सयदेहा किंचूणाओ नराण इत्थीओ। पलियअसंखिज्जइभागआऊया लक्खणो वेया ॥१४३० ॥ दसविहकप्पदुमपत्तवंछिया तह न तेसु दीवेसु । ससि-सूर-गहण-मक्कूण-जूया-मसगाइया हुंति ॥१४३१ ॥ -गाथार्थअन्तीप-लघुहिमवंत पर्वत से पूर्व-पश्चिम की ओर चारों विदिशाओं में तीन सौ योजन समुद्र में जाने के पश्चात् अन्तर्वीप है। ईशानादि चारों विदिशाओं के पहिले अन्तर्वीपों के क्रमश: ये नाम हैं-१. एकोरुक २. आभासिक ३. वैषाणिक एवं ४. नांगूली। इन चारों अन्तीपों का विस्तार तीन सौ योजन का तथा इनकी परिधि नौ सौ उनचास योजन की है।।१४२०-१४२१॥ इन अन्तर्वीपों के पश्चात् चारों विदिशाओं में चार सौ योजन विस्तृत क्रमश: १. हयकर्ण २. गजकर्ण ३. गोकर्ण एवं ४. शष्कुलिकर्ण नामक चार अन्तर्वीप हैं। ये लवण समुद्र की जगती से चार सौ योजन दूर समुद्र में स्थित हैं। इसी तरह लवण समुद्र में पाँच सौ, छ: सौ, सात सौ, आठ सौ एवं नौ सौ योजन दूर जाने पर चारों विदिशाओं में लंबाई-चौड़ाई में सदृश परिमाण वाले चार-चार द्वीप हैं। जिनके नाम हैं-३ आदर्शमुख, मेंढकमुख, अधोमुख और गोमुख। ४ अश्वमुख, हस्तिमुख, सिंहमुख और व्याघ्रमुख । ५. अश्वकर्ण, हरिकर्ण, अकर्ण और कर्णप्रावरण। ६. उल्कामुख, मेघमुख, विद्युन्मुख, विद्युदंत । ७. घनदंत, लष्टदंत, गूढ़दंत और शुद्धदंत । शिखरी पर्वत पर भी इसी तरह अट्ठावीस द्वीप हैं। तीन सौ योजन से लेकर नौ सौ योजन पर्यंत में ये द्वीप स्थित हैं। पूर्वोक्त द्वीपों के अनुसार ही इनका विस्तार समझना चाहिये ॥१४२२-१४२८ ॥ इन द्वीपों में प्रथम संघयण एवं संस्थानयुक्त, देवतुल्य रूपवान, आठ सौ धनुष ऊँचे, स्त्रियाँ किंचिन्यून ऊँचाई वाली, पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण आयु वाले, समग्र शुभलक्षणों से युक्त युगलिक निवास करते हैं। वे दस प्रकार के कल्पवृक्षों से अपनी इच्छापूर्ति करते हैं। इन द्वीपों पर चन्द्र-सूर्य का ग्रहण, खटमल, जूं, डांस-मच्छर आदि नहीं होते ॥१४२९-३१ ।। -विवेचनअन्तर्वीप = समुद्र के भीतर-स्थित द्वीप अन्तरद्वीप कहलाते हैं। जंबूद्वीप में भरत और हेमवत क्षेत्र की सीमा बाँधने वाला पूर्व-पश्चिम की ओर लम्बा, जिसके दोनों छोर लवण समुद्र को छूते हैं जो महाहिमवंत पर्वत की अपेक्षा छोटा है ऐसा क्षुल्ल हिमवन्त पर्वत है। उस पर्वत के पूर्व-पश्चिम छोर से गजदन्त के आकार वाली दो-दो शाखायें निकल कर क्रमश: ईशान कोण, अग्नि कोण, नैत्रऽत्य कोण एवं वायु-कोण की तरफ जाती हैं ।उन शाखाओं पर क्रमश: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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