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________________ प्रवचन-सारोद्धार ३४५ 1055850002010050dBoldscc a .. . ३. सौम्य–जिसकी आकृति शान्त व विश्वसनीय हो ऐसा व्यक्ति अनावश्यक पाप में प्रवृत्त नहीं होता। दूसरों के लिये सुखावह बनता है। ४. लोकप्रिय-जो इस लोक-परलोक विरोधी कार्यों में प्रवृत्त नहीं होता तथा दानादि परोपकार की प्रवृत्ति में सदा लगा रहता है, ऐसा व्यक्ति लोकप्रिय बनता है और वह अपनी लोकप्रियता से दूसरों के मन में धर्म के प्रति बहुमान पैदा करता है। ५. अक्रूर–अक्लिष्ट अध्यवसाय वाला। क्रूर आत्मा छिद्रान्वेषी, कलुषित परिणामी होने से धर्माराधना करने पर भी फल का भागी नहीं बन सकता। ६. भीरु—इस लोक-परलोक, दोनों में होने वाली हानि से डरने वाला। ऐसा आत्मा प्रसंग आने पर भी अधर्म का आचरण नहीं करता। ७. अशठ सरल हृदय से धर्म में प्रवृत्त । शठ आत्मा छल प्रपंच द्वारा दूसरों का अविश्वसनीय 'बनता है। ८. सदाक्षिण्य—अपना कार्य छोड़कर पहिले दूसरों का कार्य करने वाला। ऐसा व्यक्ति सभी का आदरणीय बनता है। ९. लज्जाशील-अकार्य करने में जिसे स्वाभाविक लज्जा आती हो । ऐसा आत्मा एकबार स्वीकृत कार्य को कभी नहीं छोड़ता। १०. दयालु–दुःखी आत्माओं के दुःख को दूर करने का इच्छुक । वास्तव में दया ही धर्म का मूल है। (दुःखीजन्तुजातत्राणाभिलाषुकः) ११. मध्यस्थ प्रतिकूल-अनुकूल सभी परिस्थितियों में समभाव रखने वाला। ऐसा व्यक्ति सभी का प्रिय बनता है। १२. सौम्यदृष्टि-जिसे देखकर किसी को उद्वेग पैदा न हो । अपितु सभी के हृदय में प्रेम जगे। (प्राणिनां प्रीतिं पल्लवयति) १३. गुणरागी—जिसके दिल में सद्गुणों के प्रति राग हो, प्रेम हो। ऐसा व्यक्ति गुणीजनों का आदर करता है। निर्गुणिओं की उपेक्षा करता है। १४. सत्कथा-हमेशा सदाचार की चर्चा करने वाले या सदाचारी परिवार से युक्त। धर्म के अनुकूल परिवार से परिवृत्त । इससे उन्मार्गगामी बनने का अवसर नहीं आता। (किसी के मतानुसार सत्कथक और सुपक्षयुक्त ये दोनों गुण अलग-अलग हैं, तथा मध्यस्थ व सौम्यदृष्टि एक गुण है) १५. दीर्घदर्शी-चारों ओर से परिणाम का विचार करके फिर कार्य करने वाला। ऐसा व्यक्ति पारिणामिकी बुद्धि द्वारा सोचकर सुन्दर परिणाम वाला ही कार्य करता है। १६. विशेषज्ञ-सार-असार, अच्छे-बुरे के भेद को जानने वाला। ऐसा आत्मा कभी भ्रम में नहीं पड़ता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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