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________________ ३४४ २३९ द्वार : धम्मरयणस्स जोगो अक्खुद्दो रूववं पगइसोमो | लोयपिओ अकूरो भीरू असठो सदक्खिन्नो ॥१३५६ ॥ लज्जालुओ दयालू मज्झत्थो सोमदिट्ठि गुणरागी । सक्कहसुपक्खजुत्तो सुदीहदंसी विसेसन्नू ॥१३५७ ॥ वुड्डाणुगो विणीओ कयन्नुओ परहियत्थकारी य। तह चेव लद्धलक्खो इगवीसगुणो हवइ सड्ढो ॥१३५८ ॥ -गाथार्थ द्वार २३९ श्रावक-गुण श्रावक के इक्कीस गुण- १. अक्षुद्र २. रूपवान ३. प्रकृतिसौम्य ४. लोकप्रिय ५. अक्रूर ६. पापभीरु ७. अशठ ८. दाक्षिण्यवान ९. लज्जालु १०. दयालु १९. मध्यस्थ १२. सौम्यदृष्टि १३. गुणानुरागी १४. सत्कथी और सुपक्षयुक्त १५. सुदीर्घदर्शी १६. विशेषज्ञ १७. वृद्धानुयायी १८. विनीत १९. कृतज्ञ २०. परहितार्थकारी और २१. लब्ध लक्ष्य - इन इक्कीस गुणों से युक्त श्रावक धर्म रत्न के योग्य होते हैं ।। १३५६-५८ ।। -विवेचन श्रावक — अन्य दर्शनियों के द्वारा प्रणीत धर्मों में प्रधान होने से जो रत्नतुल्य शोभित होता है । ऐसा धर्म - जिनेश्वरदेव द्वारा प्ररूपित देशविरतिरूप धर्म का पालन करने में सक्षम । १. अक्षुद्र - यद्यपि क्षुद्र शब्द के तुच्छ, क्रूर, दरिद्र, लघु आदि कई अर्थ हैं तथापि यहाँ क्षुद्र शब्द का तुच्छ, प्रकृति से चंचल अर्थ अभीष्ट है । अतः अक्षुद्र का अर्थ है प्रकृति से गंभीर आत्मा । गंभीर आत्मा सूक्ष्म बुद्धि वाला होने से, धर्म के मर्म को सरलता से समझ जाता है I २. रूपवान — अंगोपांग की संपूर्णता से मनोहर आकार वाला। ऐसा आत्मा धर्म के योग्य होता है। ऐसा व्यक्ति यदि सदाचारी है तो अपने आकर्षण से दूसरों को बड़ी सुगमता से धर्म में जोड़ सकता है। धर्म का प्रभावक बनता है । Jain Education International प्रश्न – नन्दिषेण, हरिकेशी आदि कुरूप होने पर भी महान् धार्मिक थे अत: रूपवान् ही धर्मरत्न के योग्य होता है, ऐसा कैसे कहा ? उत्तर - रूप दो तरह का होता है - १. सामान्य २. अतिशययुक्त । अंगोपांग की संपूर्णता सामान्यरूप है । ऐसा रूप नन्दिषेण आदि को भी मिला था। अतः उनकी योग्यता में कोई कमी नहीं रहती । अतिशायी रूप तो तीर्थंकर आदि का ही होता है । पर लोकदृष्टि से जो व्यक्ति देश, काल व उम्र के अनुसार रूपवान माना जाता है वही यहाँ अधिकृत है। ऐसा धर्मी दूसरों को धर्म के प्रति आकृष्ट कर सकता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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