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________________ ३४२ द्वार २३७-२३८ १६. परपरिवाद - निन्दा करना। १७. मायामृषा - कपटपूर्वक झूठ बोलना। १८. मिथ्यादर्शन-शल्य - मिथ्यात्व। जिनाज्ञा से विपरीत श्रद्धा, शस्त्र के शल्य की तरह आत्मा के लिये दुःख का कारण होने से शल्य कहलाती है। • मायामृषा का प्राकृत मायामोसं व मायामुसं दोनों ही रूप मिलते हैं। यह माया व मृषा, दो दोषों का योग है। यह मानमृषा आदि का उपलक्षण है। अर्थात् मायामृषा की तरह मानमृषा आदि भी पापस्थान है। • अन्य आचार्यों के मतानुसार वेषपरावर्तन द्वारा लोगों को ठगना मायामृषावाद है। स्थानांग के मतानुसार स्थानांग में रात्रिभोजन को पापस्थान में नहीं माना है परन्तु उसके स्थान पर 'अरतिरति' को पापस्थान माना है। अरति का अर्थ है मोहनीय के उदय से जन्य उद्वेग तथा रति का अर्थ है मोहनीय के उदय से जन्य आनन्द । प्रतिकूल साधनों के मिलने पर मन में जो व्याकुलता का भाव पैदा होता है वह अरति है और सुखसाधनों के मिलने पर मन में जो हर्ष होता है वह रति है। ‘अरतिरति' यहाँ एक ही माना गया है। इन दोनों में औपचारिक एकता भी है। जैसे, किसी विषय में रति है वह विषयान्तर की अपेक्षा से अरति है तथा जो अरति है वह अपेक्षाभेद से रति है। ११वें राग पापस्थान के स्थान पर कहीं 'पिज्ज' पद भी आता है। पिज्ज का अर्थ है प्रेम । यह भी रागरूप ही है ॥१३५१-५३ ।। |२३८ द्वार : | मुनिगुण छव्वय छकायरक्खा पचिंदियलोहनिग्गहो खंती। भावविशुद्धी पडिलेहणाइकरणे विसुद्धी य ॥१३५४ ॥ संजमजोए जुत्तय अकुसलमणवयणकायसंरोहो। सीयाइपीडसहणं मरणंतुवसग्गसहणं च ॥१३५५ ॥ -गाथार्थसत्ताईस मुनि के गुण-छ: व्रत, छ: काय की रक्षा, पाँच इन्द्रिय और लोभ का निग्रह, क्षमा, भावविशुद्धि प्रतिलेखना आदि कार्यों में विशुद्धि संयम योगों में तत्परता, अप्रशस्त मन-वचन और काया का निरोध, शीतादि परिषहों की पीड़ा को सहन करना तथा मारणांतिक उपसर्गों को सहना-ये मुनि के सत्ताईस गुण हैं ।।१३५४-५५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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