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प्रवचन-सारोद्धार
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सव्वं कोहं माणं मायं लोहं च राग दोसे य। कलहं अब्भक्खाणं पेसुन्न परपरीवायं ॥१३५२ ॥ मायामोसं मिच्छादसणसल्लं तहेव वोसरिमो। अंतिमऊसासंमि देहपि जिणाइपच्चक्खं ॥१३५३ ॥
-गाथार्थअट्ठारह पापस्थानक-संपूर्ण भेद सहित १. प्राणातिपात २. असत्य ३. अदत्त ४. मैथुन ५. परिग्रह ६. रात्रिभोजन का मैं त्याग करता हूँ। ७. क्रोध ८. मान ९. माया १०. लोभ ११. राग १२. द्वेष १३. कलह १४. अभ्याख्यान १५. पैशुन्य १६. परपरिवाद १७. मायामृषावाद एवं १८. मिथ्यात्वशल्य तथा जिनेश्वरदेव की साक्षीपूर्वक अन्तिम श्वासोच्छ्वास के समय शरीर का भी विसर्जन करता हूँ॥१३५१-५३ ॥
-विवेचनपापस्थान-कर्मबंध के प्रबल निमित्त । ये १८ हैं । १. प्राणातिपात
- भेद-प्रभेद सहित हिंसा। २. मृषावाद
- भेद-प्रभेद सहित झूठ। ३. अदत्तादान
- भेद-प्रभेद सहित चोरी । ४. मैथुन
- भेद-प्रभेद सहित अब्रह्म सेवन ।
- भेद-प्रभेद सहित संग्रहवृत्ति । ६. रात्रिभोजन
- सप्रभेद रात्रिभोजन। ७. क्रोध
रोष। ८. मान
- अहंकार। ९. माया
कपट १०. लोभ ११. राग
- आसक्ति, जीव का ऐसा स्वभाव जिसमें माया व लोभ परोक्ष
रूप से मिश्रित हो। १२. द्वेष
- अप्रीति, जीव का ऐसा स्वभाव जिसमें क्रोध व मान परोक्ष रूप
से मिश्रित हो। १३. कलह
- झगड़ा। १४. अभ्याख्यान -
- प्रकट रूप से असद् दोषारोपण करना अर्थात् झूठा कलंक देना। १५. पैशून्य
- चुगली करना । गुप्त रूप से किसी के सद्-असद् दोषों को प्रकट
करना।
५. परिग्रह
- लालच।
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