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________________ द्वार २३६-२३७ ३४० इन ३६ भांगों से युक्त मृषावाद द्वित्रि.हिंसा के साथ ६ प्रकार से जुड़ता है, इस प्रकार द्वित्रि. हिंसा वाले प्रथमभंग के कुल ३६ x ६ = २१६ भेद होते हैं। हिंसा के शेष ५ भांगों के भी इसी प्रकार २१६-२१६ भेद होने से ६ भांगों के कुल २१६ x ६ = १,२९६ भेद हैं। चतुःसंयोग ५ होने से चतुःसंयोगी कुल भांगे १,२९६ x ५ = ६,४८० होते हैं। पंचसंयोग में कुल भांगे ७,७७६ है। द्वि. त्रि. हिंसा, मृषा, अदत्तादान, मैथुन व परिग्रह यह पंचसंयोगी भांगा है। इसमें परिग्रह ६ प्रकार से जुड़ता है। फिर मैथुन द्वि. त्रि. हिंसा, मृषा, अदत्तादान से ६ प्रकार से जुड़ता है इससे ६ x ६ = ३६ विकल्प हुए। पुन: ३६ विकल्प वाला अदत्तादान द्वि. त्रि. हिंसा, मृषा के साथ ६-६ प्रकार से जुड़ता है अत: ३६ x ६ = २१६ भेद हुए। २१६ विकल्पों से = १,२९६ भांगे हुए। ये भेद केवल द्वि. त्रि. हिंसा वाले प्रथमभंग के हुए शेष ५ भंगों के १,२९६ जोड़ने पर १,२९६ x ६ = ७,७७६ विकल्प पंचसंयोगी में होते हैं। पंचसंयोगी भांगा १ ही है अत: ७,७७६ का १ से गुणा करने पर ७,७७६ ही भेद बनते हैं। इस प्रकार गुणकारक, गुण्य व गुणनफल की राशियों से निष्पन्न पाँच अणुव्रतों की पाँचवीं देवकुलिका परिपूर्ण हुई। शेष देवकुलिकाओं की निष्पत्ति विद्वानों के द्वारा स्वयं करनी चाहिये। इनमें उत्तरगुण का स्वीकार व अविरत-सम्यग-दृष्टिरूप दो भेदों को सम्मिलित करने पर तीस इत्यादि भांगों की कुल मिलाकर (३० + ३६० + २,१६० + ६,४८० + ७,७७६ = १६,८०६) १६,८०६ संख्या होती है। दर्शन इत्यादि श्रावक की प्रतिमायें अभिग्रह विशेष रूप हैं। व्रतरूप नहीं है। कारण प्रतिमा और व्रत का स्वरूप भिन्न-भिन्न हैं। पूर्वोक्त भंग ५ अणुव्रतों के हैं। १२ व्रत के तो बहुत अधिक भेद होते हैं। - इस प्रकार १२ व्रत के मूल ६ भांगों पर आधारित देवकुलिका के कुल भांगों की संख्या में उत्तरगुण व अविरतसम्यग्दृष्टि इन दो भेदों को मिलाने पर १३,८४,१२,८७,२०२ भांगे होते हैं। ये सभी श्रावकों के १२ व्रत सम्बन्धी भांगे हैं। महाव्रत (साधु) के २७ भांगेसाधु का व्रत ग्रहण तीन करण व तीनयोग से होता है, वह इस प्रकार हैन करना, न कराना, न अनुमोदन करना मन से। न करना, न कराना, न अनुमोदन करना वचन से। न करना. न कराना. न अनमोदन करना काया से। ३ x ३, भूत, भविष्य व वर्तमान तीनों काल की अपेक्षा से ९ x ३ = २७ भेद होते हैं। कारण साधु का प्रत्याख्यान संपूर्ण रूपेण सावध के त्यागरूप होता है। अत: उनके पच्चक्खाण के इतने ही भांगे होते हैं। परन्तु देशत्यागी श्रावक के पच्चक्खाण के १४७ भेद होते हैं ॥१३२२-५० ।। २३७ द्वार: पापस्थान सव्वं पाणाइवायं अलियमदत्तं च मेहुणं सव्वं । सव्वं परिग्गहं तह राईभत्तं च वोसरिमो ॥१३५१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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