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प्रवचन-सारोद्धार
३२९
DADDREAMSIANS
योग
करण
भंग
(vii) उत्तरगुण - उत्तरगुण सम्बन्धी पच्चक्खाण करने वाले श्रावक । यद्यपि उत्तरगुण
सात हैं—तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत। उनका ग्रहण कई प्रकार से हो सकता है तथापि सामान्यतया उत्तरगुणों को एक
मानकर यहाँ भेदों की अपेक्षा ही नहीं रखी। • श्रावकों के व्रत दो प्रकार के हैं-मूलगुण सम्बन्धी और उत्तरगुण सम्बन्धी । मूलगुण सम्बन्धी
व्रतग्रहण के पूर्वोक्त मूलभेद ६ व उत्तरभेद इक्कीस हैं। पर उत्तरगुण सम्बन्धी व्रतग्रहण का
कोई भेद नहीं है।
(viii) अविरतसम्यगृदृष्टि- क्षायिकादि सम्यक्त्व युक्त श्रावक । ३. श्रावक के बत्तीस भेद
'स्थूलप्राणातिपातविरमण' आदि पाँचों व्रतों में से प्रत्येक व्रत छ: प्रकार से ग्रहण किया जा सकता है। जैसे, कोई प्रथमव्रत को द्विविध-त्रिविध ग्रहण करता है, कोई द्विविध-द्विविध ग्रहण करता है, इत्यादि । इस प्रकार पाँच व्रत के ५ x ६ = ३० प्रकार होते हैं। इसमें उत्तरगुण व 'अविरतसम्यग्दष्टि' ये दो भेद जोड़ने से ३० + २ = ३२ व्रतग्रहण के प्रकार होते हैं। इसके अनुसार व्रतग्रहण करने वाले श्रावक भी ३२ प्रकार के होते हैं। आवश्यक के मतानुसार. कोई आत्मा पाँच व्रत एक साथ ग्रहण करता है, कोई चार व्रत, कोई तीन व्रत, कोई दो व्रत तो कोई एक व्रत। पर ये सभी छ: प्रकार से ग्रहण किये जाते हैं। अत: ऐसे भी पाँच व्रत के ग्रहण करने की अपेक्षा से ३० भेद होते हैं। इनमें उत्तरगुण व 'अविरत-सम्यग्-दृष्टि', इन दो भेदों को जोड़ने से ३० + २ = ३२ भेद श्रावकव्रत के होते हैं।
व्रतग्रहण के पूर्वोक्त भेद आवश्यक-नियुक्ति के अनुसार बताये गये हैं। भगवती में ५३७ भेद हैं। उन भेदों को समझने के लिये मूल ९ भेदों को समझना आवश्यक है। मूल ९ भेद(i) त्रिविध-त्रिविध
- ‘स्थूलहिंसादि सावध पाप न करना, न कराना, न करने वाले का
अनुमोदन करना, मन-वचन और काया से।' यह प्रथम भेद है । (ii) त्रिविध-द्विविध
- इसके उत्तर भेद ३ हैं • 'स्थूलहिंसादि सावध पाप न करना, न
कराना, न करने वाले का अनुमोदन करना, मन-वचन से।'
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