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________________ प्रवचन-सारोद्धार १७ M230.3000355006-038-00000000000050-500000000000000000000000000 20052300005500000000000 300038386 पर दर्प से जिनका चारित्र देशत: खण्डित हो चुका है ऐसे मुनियों का संयम संपूर्ण शीलांगयुक्त नहीं होता। प्रश्न–सर्वविरत वे ही कहलाते हैं कि जिनका चारित्र अखंड है। किन्तु जिनका चारित्र अल्प भी खण्डित हो चुका है वे असर्वविरत हो जाते हैं। महाव्रतों का नियम है कि उन का ग्रहण भी एक साथ होता है और अतिक्रमण भी। महाव्रतों का देशत: ग्रहण व देशत: खण्डन नहीं हो सकता। अत: जिनके महाव्रत अल्प भी खण्डित हो चुके हैं वे सर्वथा अविरत हो जाते हैं। ऐसी स्थति में सर्वविरति के देशत: खण्डन वाली बात कहना असंगत है ? उत्तर–आपका कथन सत्य है पर जिनके महाव्रत देशत: खण्डित हो चुके हैं वह भी महाव्रतों के ग्रहण की अपेक्षा से तो सर्वविरत ही है क्योंकि महाव्रतों का ग्रहण तो एक साथ ही होता है, अलग-अलग नहीं। किन्तु पालने की अपेक्षा से यह नियम नहीं है क्योंकि संज्वलन कषाय का उदय साधु को भी होता है और उसके उदय में निश्चितरूप से अतिचार लगते हैं, जो कि चारित्र को देशत: खण्डित करते हैं। कहा है—“सव्वेवि अइयारा संजलणाणं तु उदयओ हुति ।” तथा जो कहा गया है कि-एकव्रत का अतिक्रम (खण्डन) सर्वव्रतों का अतिक्रम (खंडन) है-यह कथन आपेक्षिक है। इसका आधार है दशविध प्रायश्चित्त का विधान । यदि एक के अतिक्रमण से सभी व्रतों का खण्डन होना माना जाये तो प्रायश्चित्त के अलग-अलग प्रकार बताना ही व्यर्थ होगा। एक “मूलच्छेद" प्रायश्चित्त ही बताना चाहिये था। अलग-अलग प्रायश्चित्त का विधान अलग-अलग दोषों की शद्धि के लिये है। पर. जो गुण खण्डित नहीं हुआ है उसकी क्या शुद्धि होगी? इससे यह सिद्ध होता है कि व्रतों का देशत: खण्डन उन्हें सर्वथा खण्डित नहीं करता परन्तु दूषित करता है और उन दोषों की शुद्धि उनके अनुरूप प्रायश्चित्त द्वारा होती है। कहा है-मूलच्छेद को छोड़कर शेष प्रायश्चित्त से शुद्ध होने योग्य दोषों में व्रतों का खण्डन नहीं होता, केवल व्रत दूषित होते हैं। एक व्रत के खण्डन से सभी व्रतों के खण्डन वाली बात मूलच्छेद प्रायश्चित्त से शुद्ध होने योग्य दोष में ही लागू होती है। __पूर्वोक्त स्पष्टीकरण व्यवहारनय की अपेक्षा से है। निश्चयनय की अपेक्षा से तो सातिचार चारित्री असर्वविरत ही है ॥८३९ ॥ प्रश्न-एकविध संयम के अट्ठारह हजार अवयव अर्थात् अंग कैसे होते हैं? उत्तर–३ करण (करना, कराना व अनुमोदन करना) x ३ योग (मन, वचन, व काया) = ९ x ४ संज्ञा (आहार, भय, मैथुन व परिग्रह, ये चारों संज्ञायें क्रमश: वेदनीय, भयमोहनीय, वेदमोहनीय व लोभकषाय के उदय से जन्य अध्यवसायविशेषरूप हैं।) = ३६ x ५ इन्द्रियाँ (श्रोत्र, चक्षु, घाण, रसन व स्पर्शन । इन्द्रियों का पश्चानुपूर्वी से कथन इस बात का द्योतक है कि शीलांग उत्तरोत्तर गुणों की वृद्धि से ही उपलब्ध होते हैं ।) १८० x ९ जीव + १ अजीव ( पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु, वनस्पति, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय = ९ जीव। अजीव = महामूल्यवान वस्त्र, पात्र, सोना, चाँदी आदि। दुष्प्रत्युपेक्षित व अप्रत्युपेक्षित वस्त्र, पुस्तक, चर्म, तृण पंचक आदि = १८०० x १० श्रमणधर्म (क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, आकिञ्चन्य व ब्रह्मचर्य) = १८००० शीलांग होते हैं ॥८४०-८४२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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