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द्वार १२३
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खंताइ दसपयारो एवं ठिय भावणा एसा ॥८४२ ॥ न करइ मणेण आहारसन्नविप्पजढगो उ नियमेण । सोइंदियसंवरणो पुढविजिए खंतिसंजुत्तो ॥८४३ ॥ इय मद्दवाइजोगा पुढवीकाए हवंति दस भेया। आउक्कायाईसुवि इअ एए पिंडिअं तु सयं ॥८४४ ॥ सोइंदिएण एवं सेसेहिवि जं इमं तओ पंच। आहारसन्नजोगा इय सेसाहिं सहस्सदुगं ॥८४५ ॥ एवं मणेण वयमाइएसु एवं तु छस्सहस्साई। न करे सेसेहिपि य एए सव्वेवि अट्ठारा ॥८४६ ॥
-गाथार्थअट्ठारह हजार शीलांग–अखंडचारित्रयुक्त, भावसाधुओं को निश्चित रूप से अट्ठारह हजार शीलांग होते हैं। योग, करण, संज्ञा, इन्द्रिय, पृथ्वीकाय आदि तथा दशविध श्रमणधर्म के द्वारा अट्ठारह हजार शीलांगों की निष्पत्ति होती है ॥८३९-८४० ।।
करण आदि तीन योग, मन आदि तीन करण, आहार आदि चार संज्ञा, श्रोत्र आदि पाँच इन्द्रियाँ, पृथ्वी आदि नौ जीव, एक अजीव तथा दशविध श्रमणधर्म, इन सब की इस प्रकार भावना करनी चाहिये ।।८४१-८४२ ।।
आहारसंज्ञा से रहित, श्रोत्रेन्द्रिय के विषय में संयत, क्षमायुक्त आत्मा पृथ्वीकायिक जीवों का आरंभ-समारंभ मन से नहीं करता। इस प्रकार मार्दव आदि के साथ भी भांगे करने से कुल दस भांगे हुए। इस प्रकार अप्काय आदि के साथ भी दस-दस भांगे होने से श्रोत्रेन्द्रिय के कुल सौ भांगे हुए। शेष इन्द्रियों के सौ-सौ भांगे मिलाने से पाँच इन्द्रियों के कुल पाँच सौ भांगे हुए। शेष संज्ञाओं के भी पाँच-पाँच सौ भांगे होने से चार संज्ञाओं के साथ कुल दो हजार भांगे हुए। इस प्रकार वचन और काया के दो-दो हजार भांगे मिलाने से कुल छः हजार भांगे हुए। इसी तरह 'न कराऊं' और 'न अनुमो,' के छ:-छ: हजार भांगे जोड़ने से कुल अट्ठारह हजार शील के भेद हुए ।।८४३-८४६ ॥
-विवेचनशीलांग = शील व अंग दो शब्दों से बना है। शील अर्थात् चारित्र, अंग यानि अवयव कारण । यति धर्म में अथवा शासन में चारित्र के अट्ठारह हजार अवयव विशुद्ध परिणाम की दृष्टि से हैं। पालन करने की अपेक्षा से न्यून भी हो सकते हैं। ये अट्ठारह हजार शीलांग मुनियों के ही होते हैं, श्रावकों के नहीं, क्योंकि सर्वविरति में ही इतने शीलांग हो सकते हैं, देशविरति में नहीं।
अथवा भावश्रमणों के ही अट्ठारह हजार शीलांगयुत साधु धर्म होता है द्रव्यश्रमणों के नहीं। - अर्थात् जो समग्रता से चारित्र का पालन करते हैं उन्हीं का संयम अट्ठारह हजार शीलांगयुक्त होता है,
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