________________
१८
द्वार १२३
समा-मल्लल
भांगों की रचना इस प्रकार है। यथा
१. क्षमायुक्त मन से आहारसंज्ञा विहीन होकर श्रोत्रेन्द्रिय के संयमपूर्वक पृथ्वीकायिक जीव की हिंसा न करना—यह प्रथम शीलांग है।
२. मार्दवगुण युक्त मन से आहार संज्ञा विहीन होकर श्रोत्रेन्द्रिय के संयम पूर्वक पृथ्वीकायिक जीव की हिंसा न करना—यह द्वितीय शीलांग है ।
३. आर्जवगुणयुक्त मन से आहार संज्ञा विहीन होकर श्रोत्रेन्द्रिय के संयमपूर्वक पृथ्वीकायिक जीव की हिंसा न करना—यह तृतीय शीलांग है।
• इस प्रकार ब्रह्मचर्य, तप आदि सातों के साथ सात भाँगे हुए। कुल दशविध यतिधर्म के
दश विकल्प बने। अप्काय आदि नौ के साथ दशविध यतिधर्म के विकल्प करने पर ९० विकल्प हुए। पूर्वोक्त १० मिलान पर ९० + १० = १०० विकल्प हुए। पूर्वोक्त १०० भांगे श्रोत्रेन्द्रिय के साथ हुए, वैसे चक्षु आदि इन्द्रियों के साथ भी होते हैं अत: १०० x ५ = ५०० विकल्प हुए। जैसे पूर्वोक्त विकल्प आहारसंज्ञा के साथ हैं वैसे अन्य संज्ञाओं के साथ भी होते हैं अत: ५०० x ४ = २००० विकल्प हुए। • २००० विकल्प मनोयोग के समान उस वचनयोग और काय योग के भी हैं। कुल मिलाकर
तीनों योग के २००० x ३ = ६००० विकल्प हुए। • ६००० 'न करूं' के हैं वैसे न कराऊं और 'न अनुमोदूं' के मिलाने से कुल विकल्प ६०००
x ३ = १८००० हुए। प्रश्न—पूर्वोक्त १८००० विकल्प, एक धर्म, एक योग, एक संज्ञा, एक इन्द्रिय, एक जीव व एक करण के संयोग से बने हैं। यदि इनके द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी आदि विकल्प किये जायें तो बहुत अधिक होंगे। यथा—तीन योग के एक-द्वि-त्रि संयोगी विकल्प सात हैं। इस प्रकार तीन करण के भी सात हैं। चार संज्ञा के एक-द्वि-त्रि व चतुसंयोगी १५ विकल्प हैं। पाँच इन्द्रियों के एक से लेकर पाँच संयोगी ३१ विकल्प हैं। पृथ्वीकाय आदि १० के एक-द्वि आदि संयोगी १०२३ विकल्प हैं। क्षमादि १० के भी १०२३ विकल्प हैं। पूर्वोक्त संख्या का परस्पर गुणा करने पर २३८४५१६३२६५) दो हजार करोड़, तीन सौ करोड़, चौरासी करोड़, एकावन लाख, तिरेसठ हजार, दो सौ पैंसठ विकल्प होते हैं तो आपने १८००० ही क्यों कहे?
उत्तर-सर्वविरति का ग्रहण श्रावकों के व्रतग्रहण की तरह वैकल्पिक होता, तब तो आपका कथन युक्तिसंगत था। परन्तु सर्वविरति का ग्रहण वैकल्पिक नहीं होता, वह तो समग्रता से ही होता है। एक शीलांग अन्य शीलांगों के सद्भाव में ही होता है अन्यथा सर्वविरति ही नहीं होगी। कहा है-शीलांग के अधिकार में यह समझना अत्यावश्यक है कि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org