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________________ ३०८ द्वार २२७-२२८ (v) वैक्रिय मिश्र औदारिक या कार्मण पुद्गलों का वैक्रिय पुद्गलों के साथ मिलना वैक्रिय मिश्र है । कार्मण के साथ वैक्रिय का मिश्रण देव और नरक की अपर्याप्तावस्था में होता है तथा औदारिक के साथ वैक्रिय का मिश्रण बादर पर्याप्ता वायुकाय, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च व मनुष्य (वैक्रिय - लब्धिधारी) में होता है। (vi) आहारक मिश्र - आहारक पुगलों का औदारिक पुद्गलों के साथ मिलना आहारक मिश्र है यह चौदह पूर्वधारी को आहारक शरीर बनाते समय और त्यागते समय होता है । (vii) कार्मण - आत्म-प्रदेशों के साथ क्षीर-नीर की तरह एकमेक बने हुए शरीर रूप में परिणत कर्म-परमाणु ही कार्मण शरीर कहलाते हैं (कर्मणो विकारः कार्मणं इति) । कहा है कि –— कर्मों का जो परिणमन है वही कार्मण है । जो अष्टविध विचित्र कर्मों के द्वारा निर्मित है और शेष सभी शरीरों का बीजभूत है वह कार्मण है। इसका नाश हो जाने पर शेष शरीरों का प्रादुर्भाव नहीं होता। एक गति से दूसरी गति की ओर जाने में कार्मण शरीर साधकतम है। कहा है- कार्मण शरीर से आवृत आत्मा ही मृत्यु स्थान से उत्पत्ति स्थान में जाता है । प्रश्न- यदि जीव कार्मण शरीर से आवृत एक गति से दूसरी गति में जाता है तो गमनागमन करते हुए वह दिखायी क्यों नहीं देता ? उत्तर - कर्म पुद्गल अत्यंत सूक्ष्म परिणामी है अतः वे इन्द्रियगोचर नहीं होते । अन्य दार्शनिकों ने भी कहा है अन्तरा भवदेहोऽपि सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यते । निष्क्रामन् वा प्रविशन् वा नाभावोऽनीक्षणादपि ॥ यद्यपि कार्मण शरीर अत्यंत सूक्ष्म होने से प्रवेश व निष्क्रमण के समय दिखाई नहीं देता तथापि उसका अभाव नहीं है I प्रश्न- भुक्त आहार को पचाने वाला तथा तेजो लेश्या के प्रक्षेप में निमित्तभूत तैजस् शरीर का अलग से योग क्यों नहीं कहा ? उत्तर - तैजस् शरीर सदा कार्मण के साथ ही रहता है। कार्मण के ग्रहण से उसका भी ग्रहण जाता है अतः उसे अलग से नहीं कहा ॥१३०५ ॥ २२८ द्वार : गति मिच्छे सासाणे वा अविरयभावंमि अहिगए अहवा । जंति जिया परलोयं सेसेक्कारसगुणे मोत्तुं ॥१३०६ ॥ -गाथार्थ गुणस्थानक में परलोकगमन - १. मिध्यात्व २. सास्वादन तथा ३. अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानक को प्राप्त कर जीव परलोक में जाता है । अथवा शेष ग्यारह गुणस्थानकों को छोड़कर शेष तीन गुणस्थानों में जीव परलोक में जाता है ।। १३०६ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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