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________________ प्रवचन-सारोद्धार ३०७ (ii) असत्य मनोयोग-वस्तु के स्वरूप का अयथार्थ चिंतन करना जैसे जीव नहीं है अथवा एकान्त सत् है या एकान्त असत् है ऐसा चिंतन करना। (iii) मिश्र मनोयोग-वस्तु के स्वरूप का कुछ अंशों में यथार्थ और कुछ अंशों में अयथार्थ चिंतन करना जैसे अन्य वृक्ष होने पर भी अशोक वृक्ष की अधिकता वाले वन को 'यह अशोक वन है' ऐसा चिंतन करना। पूर्वोक्त योग व्यवहार की अपेक्षा से ही मिश्र कहलाता है। परमार्थ से तो अयथार्थ होने से असत्य ही है। (iv) व्यवहार मनोयोग-वस्तु स्वरूप का ऐसा चिंतन जो न सत्य है, न असत्य है, न मिश्र है। व्यवहार मात्र है। किसी वस्तु के विषय में शंका होने पर उसके यथार्थ स्वरूप के अवबोध के लिये सर्वज्ञ के मतानुसार विकल्प करना, जैसे—जीव है? वह सत् या असत् रूप है? आदि। ऐसा चिंतन सत्य है. क्योंकि सर्वज्ञ के मतानसार होने से इसमें आराधक भाव है। परन्तु किसी वस्त के विषय में शंका होने पर सर्वज्ञ के मत से विपरीत चिंतन करना जैसे जीव नहीं है ? जीव एकांत नित्य है-ऐसा चिंतन असत्य है, कारण इसमें विराधक भाव है। ऐसा चिंतन जिसमें वस्तु स्वरूप का पर्यालोचन मात्र हो, वह व्यवहार मनोयोग कहलाता है जैसे, हे देवदत्त ! घट लाओ। मुझे गाय दो। ऐसा चिंतन मात्र वस्तु के स्वरूप का पर्यालोचन होने से न सत्य है, न असत्य है पर असत्यामृषा है। • पूर्वोक्त चिंतन व्यवहार नय की अपेक्षा से ही व्यवहार मनोयोग कहलाता है। यदि ऐसा चिंतन प्रतारणा के भावपूर्वक है तो निश्चय नय की अपेक्षा से असत्य मनोयोग है। यदि यह प्रतारणा के भावपूर्वक नहीं है तो निश्चय नय से सत्य मनोयोग है। • मनोयोग की तरह वचनयोग भी चार प्रकार का है। काययोग-(i) औदारिक = उदार = प्रधान, श्रेष्ठ । तीर्थंकर, गणधर आदि की अपेक्षा से। कारण उनके शरीर की अपेक्षा अनुत्तर देवों का शरीर भी अनन्त गुणरूपहीन होता है अथवा उदार = सर्व शरीर की अपेक्षा से जो प्रमाण में अधिक हो। कारण औदारिक शरीर एक लाख योजन की अवगाहना वाला होता है। यद्यपि उत्तर वैक्रिय की अवगाहना भी एक लाख योजन की है तथापि भवधारणीय अवगाहना की अपेक्षा से औदारिक शरीर ही सर्वाधिक अवगाहना वाला है। (ii) वैक्रिय–अनेक में से एक, एक में से अनेक, अणु से महान और महान से अणु बनने वाला शरीर वैक्रिय है। अर्थात् जिसमें विविध अथवा विशिष्ट क्रिया प्रक्रिया होती है वह वैक्रिय शरीर (iii) आहारक तीर्थंकर परमात्मा की ऋद्धि के दर्शन के लिये अथवा तथाविध विशिष्ट कार्य से चौदह पूर्वधर जिस शरीर की रचना करते हैं, वह आहारक कहलाता है। (iv) औदारिक मिश्र औदारिक पुद्गलों का कार्मण शरीर के साथ मिलना औदारिक मिश्र कहलाता है। यह अपर्याप्त अवस्था में तथा केवली समुद्घात करते समय (२रे ६ठे और ७वें समय में) होता है। अपने उत्पत्ति स्थान में आने वाला जीव प्रथम समय में ही कार्मण शरीर से औदारिक पुद्गलों को ग्रहण करके औदारिक शरीर का निर्माण करता है। इस प्रकार औदारिक शरीर निष्पन्न होने तक कार्मण से मिश्र औदारिक होने से 'औदारिक मिश्र' कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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