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________________ ३०४ द्वार २२४-२२५ ... आत्मा. के द्वारा नाम, गोत्र व वेदनीय कर्म की आयु से अधिक स्थिति की गुणश्रेणी द्वारा असंख्याता गुणी दलिक रचना करके निर्जरा करना तथा तीनों कर्मों की आयुतुल्य स्थिति की स्वाभाविक दलिक रचना द्वारा निर्जरा करना 'शैलेशीकरण' है। 'शैलेश' की स्थिति में की जाने वाली क्रिया 'शैलेशीकरण' • शैलेशीकरण में प्रविष्ट केवली भगवंत अयोगी और भवस्थ केवली होते हैं। • शैलेशीकरण के अंत में परमात्मा जितने आकाश प्रदेश में अवगाढ़ है, उतने ही आकाश प्रदेशों को समश्रेणी से अवगाहन करते हुए एक ही समय में लोकांत तक चले जाते हैं। आगे अलोक में धर्मास्तिकाय (गति सहायक) नहीं होने के कारण वहीं पर शाश्वत-काल तक स्थिर रहते हैं। सिद्ध आत्मा के ऊर्ध्वगमन के कारण • कुड्मल से युक्त एरण्डफल जैसे सहज में ऊपर की ओर बढ़ता है, वैसे कर्मों का सम्बन्ध छूट जाने से सिद्धात्मा स्वभावत: ही ऊपर गमन करती है। • मिट्टी का लेप साफ हो जाने पर जैसे तुम्बी तिरकर पानी के ऊपर आ जाती है, वैसे कर्म रूप लेप से मुक्त हो जाने पर आत्मा की ऊर्ध्व गति होती है। • जैसे कुम्हार का चक्र, झूला और बाण पूर्व प्रयोग से भ्रमण करते रहते हैं, वैसे सिद्धात्मा भी पूर्वाभ्यास से ऊर्ध्व-गमन करते हैं। जीव स्वभावत: ऊर्ध्वगामी है और पुद्गल स्वभावत: अधोगामी है। यही कारण है कि मिट्टी, पत्थर आदि ऊपर की ओर फेंकने पर भी नीचे की ओर ही आते हैं, वैसे जीव अपने सहज स्वभाव से ऊपर जाता है ॥१३०२ ।। २२५ द्वार: मार्गणा-स्थान गइ इंदिए य काये जोए वेए कसाय नाणे य। संजम दंसण लेसा भव सम्मे सन्नि आहारे ॥१३०३ ॥ -गाथार्थमार्गणा-स्थान चौदह-१. गति २. इन्द्रिय ३. काया ४. योग ५. वेद ६. कषाय ७. ज्ञान ८. संयम ९. दर्शन १०. लेश्या ११. भव्य १२. सम्यक्त्व १३. संज्ञी तथा १४. आहारक-ये चौदह मार्गणा स्थान हैं ॥१३०३ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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