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________________ प्रवचन-सारोद्धार ३०५ 658 SODE -विवेचनमार्गणा स्थान—जीवादि पदार्थों के स्वरूप को प्रकट करने वाले मानक मार्गणा स्थान कहलाते मूल मार्गणा-१४ गति इन्द्रिय (iii) काय योग वेद (vi) कषाय (vii) ज्ञान (अज्ञान) (viii) संयम उत्तर मार्गणा-६२ ४. नरक-मनुष्य-तिर्यंच और देवगति ५. स्पर्शन-रसन-घ्राण-चक्षु और श्रोत्रेन्द्रिय ६. पृथ्वि-अप्-तेउ-वायु-वनस्पति और त्रसकाय ३. मनोयोग-वचनयोग और काययोग ३. स्त्रीवेद-पुरुषवेद और नपुंसकवेद ४. क्रोध-मान-माया और लोभ ५. मति-श्रुत-अवधि-मन:पर्यव और केवलज्ञान ३. मतिअज्ञान-श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान ५. सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात चारित्र २. देशसंयम, असंयम ४. चक्षु-अचक्षु-अवधि-केवलदर्शन ६. कृष्ण-नील-कापोत-तेजो-पद्म और शुक्ललेश्या २. भव्य और अभव्य ६. क्षायोपशमिक-क्षायिक-औपशमिक-मिश्र-सासादन और मिथ्यात्व २. संज्ञी और असंज्ञी २. आहारक और अनाहारक ॥१३०३ ।। (असंयम) दर्शन (ix) लेश्या (xi) (xii) भव्य सम्यक्त्व (xiii) संज्ञी (xiv) आहारक २२६ द्वार: उपयोग मइ सुय ओही मण केवलाणि मइ सुयअन्नाण विब्भंगा। अचक्खु चक्खु अवही केवलचउदंसणु वउगा ॥१३०४ ॥ -गाथार्थबारह उपयोग–मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यव और केवल -ये पाँच ज्ञान, मति अज्ञान श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान -ये तीन अज्ञान, चक्षु, अचक्षु अवधि और केवल ये चार दर्शन -इस प्रकार बारह उपयोग हैं॥१३०४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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