SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वार २२४ ३०२ (iii) मनोयोग मन:पर्यायज्ञानी व अनुत्तर विमानवासी देवों के द्वारा पूछे गये 'मानसिक प्रश्नों का समाधान करने के लिये मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करना। मन:पर्यायज्ञानी व अनुत्तर विमानवासी देवों के मानसिक प्रश्नों का समाधान देने के लिये तीर्थंकर परमात्मा मनोवर्गणा के दलिकों को ग्रहण करके, उन्हें विवक्षित अर्थ के आकार में व्यवस्थित करते हैं। भगवान के द्वारा प्रयुक्त मनोवर्गणा के पुद्गलों को मन:पर्यवज्ञान व अवधिज्ञान द्वारा जानकर मन:पर्यवज्ञानी व देवता अपने प्रश्नों का सही समाधान पा लेते हैं। केवलज्ञानरूपी सूर्य उदित हो जाने से जिनका अज्ञानरूपी अन्धकार नष्ट हो गया है, ऐसे योग युक्त भगवान को सयोगी जिन कहा गया है। केवली को राग-द्वेष नहीं होता अत: उनके नवीन कर्मों का बंध भी नहीं होता। मात्र योग के कारण उन्हें इर्यापथिक आस्रव और बंध होता है, जो तत्काल ही निर्जरित होता रहता है। जिस प्रकार स्वच्छ वस्त्र पर लगी हुई रेत तत्क्षण झड़ जाती है, उसी प्रकार योग के सद्भाव से आगत कर्म-परमाणु भी कषाय के अभाव में तत्काल झड़ जाते हैं। ये सयोगी जिन धर्मदेशना देते हए जनकल्याण करते हैं। इस अवस्था की तुलना वेदान्त की जीवनमक्ति या सदेहमक्ति की अवस्था से की जा सकती है। १४. अयोगी केवली—तीनों योगों से रहित केवली भगवन्त का गुणस्थान । प्रत्येक योग के सूक्ष्म और बादर दो-दो भेद हैं। केवलज्ञान होने के पश्चात् केवली भगवन्त, जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टत: देशोनपूर्व क्रोड़ वर्ष तक विचरण कर आयुष्य का अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल शेष रहने पर शैलेशी करण करते हैं। शैलेशीकरण करने के लिए प्रथम योगनिरोध करना पड़ता है। इसकी विधि निम्न प्रकार • सर्वप्रथम बादरकाययोग से बादर वचन योग का अवरोध होता है। • तत्पश्चात् बादरवचनयोग से बादर मनोयोग का अवरोध होता है। • सूक्ष्मकाययोग से बादरकाययोग का अवरोध होता है। • सूक्ष्मकाययोग से सूक्ष्मवचन योग का अवरोध होता है। • सूक्ष्मकाययोग से सूक्ष्ममनोयोग का अवरोध होता है। • बादरकाययोग के रहते हुए सूक्ष्म योगों का निरोध नहीं हो सकता। तत्पश्चात् सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति शुक्लध्यान के बल से आत्मा स्व प्रयत्नपूर्वक सूक्ष्म काययोग का निरोध करता है। इस प्रकार सभी योगों का निरोध करके समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती शुक्लध्यान के बल से आत्मा शैलेशीकरण में प्रवेश करता है। शैलेशीकरण-योग और लेश्या रूप कलंक से रहित यथाख्यात चारित्र लक्षण शील का ईश, स्वामी = शीलेश अर्थात् आत्मा है। अपने देह प्रमाण में से २/३ भाग रखकर १/३ भाग में फैले हुए आत्मप्रदेशों के द्वारा पेट, मुँह आदि के छिद्रों को भरकर आत्मा का पर्वत की तरह अत्यंत स्थिर हो जाना शैलेशी कहलाता है। शैलेश की स्थिति में वर्तमान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy