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________________ प्रवचन - सारोद्धार ३०१ १०. सूक्ष्म संपराय — नवमें गुणस्थान की अपेक्षा जहाँ सूक्ष्म किट्टीकृत संज्वलन लोभ रूप कषाय का उदय होता है, वह 'सूक्ष्म संपराय गुणस्थान' कहलाता है। यहाँ संज्वलन लोभ का क्षय या उपशम होने से यह गुणस्थान भी क्षपक और उपशामक के भेद से दो प्रकार का है । ११. उपशान्तकषाय — इसका पूरा नाम 'उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान' है। आत्मा के ज्ञानादि गुणों को ढंकने वाले ज्ञानावरणीय आदि घाती कर्मों का उदय छद्म है । जिन्हें घाती कर्मों का उदय चल रहा है वे छद्मस्थ हैं । छद्मस्थ सरागी भी होते हैं अत: उनकी व्यावृत्ति के लिये वीतराग विशेषण दिया । वीतराग का अर्थ है माया-लोभ रूप राग व उपलक्षण से क्रोध-मानरूप द्वेष से रहित । ‘वीतराग छद्मस्थ' तो क्षीण मोह गुणस्थान भी होता है अतः उससे इसे भिन्न करने के लिये उपशान्त (संक्रमण, उद्वर्तना, अपवर्तनादि करणों के द्वारा जहाँ कषायों का विपाकोदय और प्रदेशोदय नहीं हो सकता) कषाय विशेषण दिया गया है। फिटकरी डालने से तथा कचरा नीचे जम जाने से जैसे जल निर्मल प्रतीत होता है उसी प्रकार जिसका मोहकर्म सर्वथा उपशान्त हो चुका है ऐसा जीव अत्यन्त निर्मल परिणाम वाला होता है । इस गुणस्थान का समय पूर्ण होते ही जीव नीचे गिरता हुआ सातवें गुणस्थान को प्राप्त होता है । यदि उसका संसार परिभ्रमण शेष है तो वह मिथ्यात्व गुणस्थान तक भी पहुंच जाता है । इस गुणस्थान में वृत्तियां निर्मूल नहीं होती है मात्र शान्त हो जाती हैं। अत: राख में दबी हुई आग की तरह निमित्त पाकर पुन: प्रबल हो जाती हैं । अतः यहां से साधक का पतन अवश्यंभावी है । १२. क्षीणकषाय- इसका पूरा नाम 'क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ' गुणस्थान है । जहाँ मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से आत्मा वीतराग जैसा बन चुका है, किन्तु ज्ञानावरणीय आदि घाती कर्मों से अभी भी आवृत है, वह 'क्षीण कषाय छद्मस्थ' गुणस्थान है । कषायों का क्षय अन्य गुणस्थानों में भी होने से उनका व्यवच्छेद करने के लिये इस गुणस्थान का 'वीतराग' यह विशेषण दिया गया। 'क्षीणकषाय' वीतरागी केवली भी होते हैं, अतः उनका व्यावर्तन करने के लिये 'छद्मस्थ' यह विशेषण दिया । छद्मस्थ सरागी भी होते हैं अत: उनकी व्यावृत्ति के लिये 'वीतराग' विशेषण दिया तथा उपशान्त कषायी भी 'वीतराग - छद्मस्थ' होते हैं अत: उनकी निवृत्ति के लिये 'क्षीण कषाय' विशेषण दिया । मोहकर्म के संपूर्णत: क्षय हो जाने से जिसका चित्त स्फटिक के पात्र में रखे हुए स्वच्छ जल के तुल्य हो गया है, ऐसा वीतराग साधक क्षीणकषायी कहलाता है। यहां पुनः दूषित होने का भय नहीं रहता है। अथवा जिस प्रकार आग को जल से पूर्णतः बुझा देने के बाद उसके पुनः प्रज्वलित होने का कोई भय नहीं रहता ठीक उसी प्रकार इस गुणस्थान में पहुंचे जीव को किसी प्रकार के पतन का भय नहीं रहता। यह आत्मिक विकास की पूर्ण अवस्था है। १३. सयोगी केवली - योग अर्थात् जोड़ने वाला व्यापार अर्थात् मन, वचन और काया की प्रवृत्ति । जो योग सहित है वे सयोगी, ऐसे केवली भगवन्त का गुणस्थान । केवली भगवन्त में योगों की घटना निम्न रूप से होती है— (i) काययोग (ii) Jain Education International वचनयोग - गमनागमन, श्वासोच्छ्वास पलक झपकना आदि क्रिया के रूप में होती है। 1 उपदेश आदि देना वचनयोग के कारण हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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