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________________ ३०० द्वार २२४ 402040305023384 455554848वदमान-७७७०४५३ ४०००१000000 प्रश्न-एक समय में वर्तमान कालिक जीवों के जघन्य, उत्कृष्ट अध्यवसाय स्थान असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण ही कैसे होंगे? क्योंकि एक समय में वर्तमान त्रैकालिक जीव अनन्त है और उनके अध्यवसाय स्थान परस्पर भिन्न-भिन्न होते हैं अत: अनन्त ही होने चाहिये। उत्तर-यद्यपि जीव अनंत हैं, उनके अध्यवसाय स्थान भी भिन्न-भिन्न हैं, तथापि सभी जीवों के अध्यवसाय स्थान भिन्न नहीं है। अनंत जीवों में भिन्न अध्यवसाय वाले जीवों की अपेक्षा समान अध्यवसाय वाले जीव अधिक हैं। अत: अनन्त जीव होते हुए भी उनके अध्यवसाय स्थान असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण ही होते हैं। प्रश्न—इस गुणस्थानवी जीवों में द्वितीय, तृतीय आदि समय में जो अध्यवसाय स्थानों की वृद्धि होती है, उसका क्या कारण है? उत्तर—इस गुणस्थानवर्ती जीव जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे उसके भाव विशुद्ध बनते जाते हैं। भावों की यह विशुद्धि ही उसके अध्यवसाय स्थानों की वृद्धि का मुख्य कारण है। इस गुणस्थान में वर्तमान जीवों के अध्यवसाय प्रत्येक समय में बदलते रहने के कारण इसका दूसरा नाम निवृत्तिकरण भी है। इस गुणस्थानवी जीव के प्रथमसमय के जघन्य अध्यवसाय स्थान से उत्कृष्ट अध्यवसायस्थान अनन्तगुण विशुद्ध हैं। उससे द्वितीय समय का जघन्य अध्यवसायस्थान अनन्तगुणविशुद्ध है। उससे द्वितीय समय का उत्कृष्ट अध्यवसाय स्थान अनन्तगुण विशुद्ध है। इस प्रकार उत्तरोत्तर अनंतगुण विशुद्ध होते-होते अन्तिम समयवर्ती उत्कृष्ट अध्यवसायस्थान सर्वोत्कृष्ट विशुद्धियुक्त होता है। एकसमयवर्ती अध्यवसायस्थान भी परस्पर षट्स्थानपतित होते हैं। यथा(i) एक समयवर्ती कुछ जीवों की विशुद्धि अनन्तभाग अधिक होती है। (ii) एक समयवर्ती कुछ जीवों की विशुद्धि असंख्यातभाग अधिक होती है। (iii) एक समयवर्ती कुछ जीवों की विशुद्धि संख्यातभाग अधिक होती है। (iv) एक समयवर्ती कुछ जीवों की विशुद्धि संख्यातगुण अधिक होती है। (v) एक समयवर्ती कुछ जीवों की विशुद्धि असंख्यातगुण अधिक होती है। (vi) एक समयवर्ती कुछ जीवों की विशुद्धि अनंतगुण अधिक होती है। ९. अनिवृत्तिबादर-आठवें गुणस्थान की तरह यहाँ भी स्थितिघात, रसघात आदि पाँचों ही कार्य होते हैं। अन्तर मात्र यही है कि यहाँ एक समयगत त्रिकालवी जीवों के अध्यवसाय-स्थान परस्पर समान होते हैं। (एक जीव जिस अध्यवसाय स्थान में वर्तमान है, उसके समकालीन सभी जीव उसी अध्यवसाय स्थान में वर्तमान रहते है)। प्रति समय बदलते नहीं हैं तथा संसार में परिभ्रमण कराने वाले बादर-कषायों (जिनके कारण जीव संसार में भटकता है वे संपराय है) का उदय होता है अत: इसका नाम ‘अनिवृत्तिबादर संपराय' गुणस्थान है। इस गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त का है। प्रथम समय के अध्यवसाय स्थान से उत्तर समयवर्ती अध्यवसाय स्थान क्रमश: अनन्तगुण विशुद्ध होते हैं तथा अध्यवसाय स्थानों की संख्या अन्तर्मुहूर्त के समय प्रमाण है, क्योंकि एक समय में वर्तमान जीवों का एक ही अध्यवसाय स्थान होता है। क्षपक और उपशामक के भेद से यह गुणस्थान भी दो प्रकार का है। क्षपक श्रेणि वाला जीव इस गुणस्थान में आकर दर्शन-सप्तक और संज्वलन लोभ को छोड़कर मोहनीय की शेष बीस प्रकृति का क्षय करता है और उपशम श्रेणिवाला उन्हीं बीस प्रकृतियों का उपशम करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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