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________________ प्रवचन-सारोद्धार २९९ पूर्वगुणस्थानों में अध्यवसायों की विशुद्धि इतनी न होने से अल्प दलिकों की अपर्वतमी होती थी अत: वहाँ गुणश्रेणी, काल की अपेक्षा दीर्घ व दलिकरचना की अपेक्षा ह्रस्व होती थी पर इस गुणस्थान में अध्यवसायों की अपूर्व विशुद्धि होने से अपवर्तना के द्वारा अल्प समय में अधिकाधिक दलिकों की रचना होती है। गुणसंक्रम-कर्म प्रकृतियों का योग्य संयोजन । शुभाशुभ प्रकृति के सत्तागतं दलिकों को प्रति-समय बध्यमान शुभाशुभ प्रकृति के दलिकों में डालना। दलिकों का यह संक्रमण अध्यवसाय की अत्यधिक विशुद्धि के कारण प्रतिक्षण असंख्यात गुण वृद्धि से होता है। स्थितिबंध-कर्मों की अल्पतम स्थिति का बंध। पहले अशुभ परिणाम से कर्मों की लंबी स्थिति का बंध होता था। अब इस गुणस्थान में तीव्र विशुद्धि होने से प्रति समय पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन, हीनतर व हीनतम स्थिति का बंध होता है। गुणश्रेणि पूर्व गुणस्थानों में भी होती है, किन्तु अध्यवसाय इतने शुद्ध न होने से वहाँ समय अधिक लगता है और दलिक अल्प-मात्रा में क्षय होते हैं। इस गुणस्थान में अल्प-समय में अधिक लिक क्षय होते हैं, कारण यहाँ अध्यवसायों की विशुद्धि अधिक है। यह गुणस्थान क्षपक श्रेणि और उपशम श्रेणि की अपेक्षा से दो प्रकार का है-(i) क्षपक और (ii) उपशामक । यद्यपि इस गुणस्थान में किसी भी प्रकृति का क्षय या उपशम नहीं होता तथापि श्रेणी के प्रारम्भ में जो विशुद्धि आवश्यक है, वह इस गुणस्थान में होती है। जैसे राजकुमार को भी भावी संभावना की अपेक्षा से कभी-कभी राजा कह देते हैं, वैसे श्रेणि योग्य विशुद्धि की अपेक्षा से इस गुणस्थान को भी क्षपक या उपशामक कहते हैं। इस गुणस्थानवर्ती त्रैकालिक जीवों के उत्तरोत्तर बढ़ते हुए प्रतिसमय के अध्यवसाय परस्पर इतने भिन्न होते हैं कि उनकी संख्या उत्तरोत्तर बढ़ते हुए असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण होती है। एक समयवर्ती अनेक जीवों की अपेक्षा से अध्यवसाय परस्पर भिन्न होते हुए भी असंख्याता से अधिक केवलज्ञानी की दृष्टि में नहीं होते। याद इन्हें जघन्य विशुद्धि स्थान से प्रारम्भ करें तो उत्तरोत्तर अधिक विशुद्धि वाले स्थान उपलब्ध होते हैं। यदि इनका प्रारंभ उत्कृष्ट विशुद्धि वाले स्थान से करें तो उत्तरोत्तर जघन्य, जघन्यतर और जघन्यतम विशुद्धि वाले स्थान प्राप्त होते हैं। (ii) प्रथम स्थान में वर्तमान जीवों की अपेक्षा द्वितीय समयवर्ती जीवों के अध्यवसाय स्थान कुछ अधिक होते हैं। इस प्रकार तृतीय, चतुर्थ, पंचम आदि समयवर्ती जीवों के अध्यवसाय स्थान उत्तरोत्तर बढ़ते जाते हैं। यदि अध्यवसाय स्थानों की स्थापना की जाये तो उसका आकार विषम चतुरस्र जैसा _बनता है। यथा ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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