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________________ द्वार २२४ २९८ होता है, वह 'प्रस्तसंयत गुणस्थान' कहलाता है। देशविरति-गुणस्थान की अपेक्षा यह गुणस्थान अधिक शुद्ध होता है। आगे के गुणस्थान के विषय में भी यही समझना अर्थात् पूर्व की अपेक्षा उत्तर गुणस्थान अधिक शुद्ध होते हैं। ७. अप्रमत्तसंयत-सर्व-सावध योग एवं निद्रा-विकथादि प्रमाद के त्याग से आत्मा की जो अवस्था होती है वह 'अप्रमत्तसंयत' गण स्थान है। जो देह में रहते हए भी देहातीत अवस्था का बोध करते हैं वे साधक इस वर्ग में आते हैं। इन्हें भी शारीरिक उपाधियां विचलित करती रहती हैं अत: इस गणस्थान में साधक अन्तर्मुहूर्त तक ही रहता है। इस गुणस्थान की उपमा घड़ी के पेण्डुलम या झले से दी गई है। जब-जब कषाय आदि प्रमादों पर साधक विजय प्राप्त कर लेता है तब-तब वह अप्रमत्तसंयत गुणस्थानी होता है और जब-जब कषाय आदि प्रमाद उस पर हावी हो जाते हैं तबतब वह पुन: प्रमत्तसंयत गुणस्थान में चला जाता है। जैसे उछाले जाने पर गेंद एकबार ऊपर जाती है पर पुन: नीचे आ जाती है वही स्थिति सातवें-छठे गुणस्थानवर्ती साधकों की है। ८. अपूर्वकरण-अपूर्व अर्थात् पहिले कभी नहीं हुआ ऐसा अद्वितीय गुणों का स्थान अपूर्वकरण गुणस्थान है। जिस गुणस्थान में स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि, गुणसंक्रम और अपूर्व स्थितिबंध ये पाँच अपूर्व बातें होती हैं वह 'अपूर्वकरण गुणस्थान' कहलाता है। स्थितिघातादि का स्वरूप स्थितिघात–कर्मों की स्थिति में कमी अर्थात् ज्ञानावरणादि कर्म की अन्त: कोड़ाकोड़ी प्रमाण दीर्घ स्थिति को छोटी करना स्थितिघात कहलाता है। . रसघात-कर्मों की तीव्रता में कमी। सत्ता में रहे हुए ज्ञानावरणादि अशुभ प्रकृति के तीव्र रस को अपवर्तनाकरण से अल्प करना रसघात है। इसकी प्रक्रिया इस प्रकार है-स्थितिघात द्वारा न्यूनीकृत कर्म की स्थिति में कुल जितना रस है उसके कल्पना द्वारा अनन्त भाग करके, उनमें से एक भाग शेष रखते हुए बाकी भागों को नष्ट करना, यह प्रथम रसघात है। तत्पश्चात् अवशिष्ट भाग के पुन: बुद्धि द्वारा अनन्त भाग करके एक भाग रखते हुए शेष सभी भागों का नाश करना, यह दूसरा रसघात है। इस प्रकार अपवर्तनाकरण द्वारा एक स्थितिघात में हजारों रसघात होते हैं। पूर्व गुणस्थानों में विशुद्धि अल्प होने से वहां ये दोनों अल्प-मात्रा में होते हैं । अपूर्वकरण गुणस्थान में विशुद्धि अधिक होने से ये दोनों विपुल मात्रा में होते हैं, अत: पूर्व की अपेक्षा यहाँ स्थितिघात, रसघात अपूर्व कहलाता है। गुणश्रेणि-कर्मदलिकों का अपने ढंग से आयोजन । स्थितिघात और रसघात के द्वारा स्थितिहीन एवं रसहीन बने उपरवर्ती स्थिति के कर्मदलिकों को शीघ्रतर क्षीण करने के लिये अपवर्तनाकरण के द्वारा खींचकर उदयावलिका में इस प्रकार व्यवस्थित करना कि पूर्व समय की अपेक्षा उत्तर समय में असंख्यात गुण अधिक दलिक भोगे जायें। स्थापना इस प्रकार है ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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