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________________ प्रवचन-सारोद्धार २९१ ये सातों ही जीवभेद पर्याप्ता व अपर्याप्ता दो प्रकार के होने से जीव के सात + सात = चौदह भेद होते हैं। - अपर्याप्ता-अपर्याप्ता के दो भेद हैं-(i) लब्धि अपर्याप्ता व (ii) करण अपर्याप्ता (i) लब्धि अपर्याप्ता __- जो जीव अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना ही मर जाते हैं, वे लब्धि अपर्याप्ता हैं। आगममतः - लब्धिपर्याप्ता भी आहार, शरीर और इन्द्रियपर्याप्ति को पूर्ण करके ही मरते हैं, क्योंकि परभव के आयुष्य का बंध इन तीन पर्याप्ति से पर्याप्ता ही कर सकता है। (ii) करण अपर्याप्ता - जो जीव अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही मरेंगे पर अभी पूर्ण नहीं की है वे करण अपर्याप्ता हैं ॥१३०० ॥ २२३ द्वार: अजीव-भेद धम्माऽधम्माऽऽगासा तियतियभेया तहेव अद्धा य। खंधा देस पएसा परमाणु अजीव चउदसहा ॥१३०१ ॥ -गाथार्थअजीव के चौदह भेद-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के तीन-तीन भेद हैं। काल का एक भेद तथा पुद्गलास्तिकाय के स्कंध, देश, प्रदेश और परमाणु चार भेद हैं। पूर्वोक्त सभी भेदों को मिलाने से अजीव के चौदह भेद होते हैं ।।१३०१ ।। -विवेचन अजीव के दो भेद हैं-(i) रूपी और (ii) अरूपी । (i) रूपी-जिसमें रूप हो वह रूपी है ऐसा कथन गन्ध, रस, स्पर्श आदि का उपलक्षण है क्योंकि गंधादि के अभाव में केवल रूप का होना असंभव है। अथवा रूप का अर्थ है वर्ण, गंध, रंस, स्पर्शयुक्त मूर्ति = आकार, रूप है। ऐसा रूप जिसमें है वह रूपी है। ऐसे पुद्गल हैं। इसके ४ भेद (अ) स्कंध-स्कंदति अर्थात् सूखना, धीयन्ते अर्थात् पुष्ट होना अर्थात् चय-अपचय स्वभाव वाला अनन्तानंत परमाणुओं का समूह स्कंध है। स्कंध चक्षुग्राह्य व चक्षु अग्राह्य दो प्रकार के होते हैं। चक्षुग्राह्य-जो चर्मचक्षु से दिखायी दे वह चक्षुग्राह्य है, जैसे कुंभ, स्तंभ, शरीर आदि। चक्षुअग्राह्य-जो चर्म चक्षु से दिखाई न दे वह चक्षुअग्राह्य है, जैसे अचित्तमहास्कंध। यहाँ बहुवचन का प्रयोग पुद्गल स्कंधों की अनंतता प्रमाणित करता है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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