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________________ द्वार २२१ २८४ -गाथार्थभेद-प्रभेद सहित षड्भाव–औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक, पारिणामिक, और सान्निपातिक ये छ: भाव हैं। प्रथम पाँच भावों के क्रमश: दो, नौ, अट्ठारह इक्कीस तथा तीन भेद हैं ॥१२९० ॥ प्रथम भाव के सम्यक्त्व और चारित्र दो भेद हैं। द्वितीय भाव के दर्शन, ज्ञान, दान, लाभ, उपभोग, भोग, वीर्य, सम्यक्त्व और चारित्र-ये नौ भेद हैं ।।१२९१ ।। चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन, पाँच दानादि लब्धि, सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम ये तृतीयभाव के भेद हैं ॥१२९२ ।। चार गति, चार कषाय, तीन लिंग, छ: लेश्या, अज्ञान, मिथ्यात्व, असिद्धत्व और असंयमये चतुर्थभाव के भेद हैं ॥१२९३ ॥ पंचम भाव के जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व-ये तीन भेद हैं। पाँचों भावों के कुल मिलाकर त्रेपन भेद होते हैं ॥१२९४ ॥ . चार गति की अपेक्षा औदयिक, क्षायोपशमिक तथा पारिणामिक भाव के चार भंग हैं। औदयिक आदि तीन के क्षायिक के साथ अथवा उपशम के साथ भी चार भंग होते हैं। उपशमश्रेणि, सिद्धावस्था तथा केवली अवस्था में एक भंग होता है। इस प्रकार सान्निपातिक भाव के पन्द्रह भेद हैं। शेष बीस भेद असंभवित हैं ॥१२९५-९६ ।। द्विसंयोगी भांगे सिद्ध केवली तथा संसारी जीवों में संभवित होते हैं। त्रिसंयोगी और चतुर् संयोगी भांगे चारों गतियों में घटित होते हैं। मनुष्य में पंचसंयोगी भांगा घटित होता है। उपशमभाव नीय कर्म का ही होता है। क्षयोपशमभाव चार घातीकर्म का होता है। औदयिक, क्षायिक एवं पारिणामिक भाव आठों कर्मों का होता है ॥१२९७-९८ ॥ सम्यक्त्व आदि चार में तीन अथवा चार भाव होते हैं। उपशामक और उपशांत में चार अथवा पाँच भाव होते हैं। क्षीणमोह और अपूर्वकरण में चार भाव हैं। शेष गुणठाणों में तीन भाव होते हैं। यह एक जीव की अपेक्षा से समझना चाहिये ॥१२९९ ।। . -विवेचन • जीवादि पदार्थ का निमित्तजन्य या स्वभावजन्य परिणाम विशेष भाव है अर्थात् वस्तु का परिणाम विशेष भाव है अथवा पदार्थ का उपशमादि पर्याय के द्वारा जो परिणमन होता है वह भाव है। इसके छ: भेद हैं(i) औपशमिक (ii) क्षायिक (iii) क्षायोपशमिक (iv) औदयिक (v) पारिणामिक और (vi) सान्निपातिक (i) औपशमिक-क्रोधादि के रसोदय एवं प्रदेशोदय के अभाव से जन्य जीव का परिणाम विशेष औपशमिक भाव है। राख द्वारा ढंकी हुई आग की तरह शांत अवस्था उपशम है। इसमें मोहनीय मोहनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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