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प्रवचन-सारोद्धार
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(viii) आयुकर्म - नरकायु
वर्णचतुष्क-प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार का होने से पाप और पुण्य दोनों में गिना जाता है। यहाँ वर्णादि चार ही लेना है, जिससे बंध सम्बन्धी १२० प्रकृति की संख्या बराबर रहती है ॥१२८७-८९ ॥
२२१ द्वार:
भाव-षट्क
भावा छच्चोवसमिय खइय खओवसम उदय परिणामा । दु नव द्वारि गवीसा तिग भेया सन्निवाओ य ॥१२९० ॥ सम्मचरणाणि पढमे दंसणनाणाई दाणलाभा य। उवभोगभोगवीरिय सम्मचरित्ताणि य बिइए ॥१२९१ ॥ चउनाणमणाणतिगं दंसणतिग पंच दाणलद्धीओ। सम्मतं चारित्तं च संजमासंजमो तइए ॥१२९२ ॥ चउगइ चउक्कसाया लिंगतिगं लेसछक्कमन्नाणं । मिच्छत्तमसिद्धत्तं असंजमो तह चउत्थम्मि ॥१२९३ ॥ पंचमगंमि य भावे जीवाभवत्तभव्वया चेव। पंचण्हवि भावाणं भेया एमेव तेवन्ना ॥१२९४ ॥
ओदयिय-खओवसमिय-परिणामेहिं चउरो गइचउक्के । खइयजुएहिं चउरो तदभावे उवसमजुएहिं ॥१२९५ ॥ एक्केक्को उवसमसेढीसिद्धकेवलिसु एवमविरुद्धा। पन्नरस सन्निवाइयभेया वीसं असंभविणो ॥१२९६ ॥ दुगजोगो सिद्धाणं केवलि-संसारियाण तियजोगो। चउजोगजुअं चउसुवि गईसु मणुयाण पण जोगो ॥१२९७ ॥ मोहस्सेवोवसमो खाओवसमो चउण्ह घाईणं । उदयक्खयपरिणामा अट्ठण्हवि हुंति कम्माणं ॥१२९८ ॥ सम्माइचउसु तिग चउ भावा चउ पणुवसामगुवसंते। चउ खीणऽपुव्वे तिन्नि सेस गुणठाणगेगजिए ॥१२९९ ॥
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