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________________ द्वार २२० २८२ २२० द्वार: पाप-प्रकृति 8988003808666000008888888000000425 नाणंतरायदसगं देसण नव मोहपयइ छव्वीसा। अस्सायं निरयाउं नीयागोएण अडयाला ॥१२८७ ॥ नरयदुगं तिरियदुगं जाइचउक्कं च पंच संघयणा। संठाणावि य पंच उ वन्नाइचउक्कमपसत्थं ॥१२८८ ॥ उवघाय कुविहयगई थावरदसगेण होंति चोत्तीसा। सव्वाओ मीलियाओ बासीई पावपयडीओ ॥१२८९ ॥ __ -गाथार्थबयासी पाप प्रकृति-ज्ञानावरण और अंतराय की दश, नौ दर्शनावरण, मोहनीय की छब्बीस, अशातावेदनीय, नरकायु, नीचगोत्र, नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, जाति चतुष्क, संघयण पंचक, संस्थान पंचक, अप्रशस्त वर्णादि चतुष्क, उपघात, अशुभविहायोगति, स्थावरदशक-इस प्रकार नामकर्म की चौतीस प्रकृतियों के साथ ज्ञानावरणीय अड़तालीस प्रकृतियों को मिलाने पर कुल बयासी प्रकृतियाँ होती हैं।।१२८७-८९॥ -विवेचन कर्म प्रकृति (i) ज्ञानावरणीय = मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यव और केवल-ज्ञानावरणीय । दर्शनावरणीय __= चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शनावरणीय, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, थीणद्धि । (iii) अन्तराय ___ = दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य अन्तराय । (iv) मोहनीय २६ = १६ कषाय, ९ नोकषाय और मिथ्यात्व मोहनीय (सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय का शुद्ध तथा अर्ध-शुद्ध रूप है अत: उनका बंध पृथक् नहीं होता।) वेदनीय = १ असाता वेदनीय (vi) गोत्र = १ नीचगोत्र (vii) नामकर्म = ३४ नरकद्विक, तिर्यग्द्विक, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, अप्रथमसंघयण, अप्रथम संस्थान, अप्रशस्तवर्णादि ४ (वर्ण-नील, कृष्ण, गन्ध-दुरभि, रस-तिक्त व कटु, स्पर्श-गुरु, कर्कश, रूक्ष, शीत) उपघात, अशुभविहायोगति और स्थावर दशक = ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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