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प्रवचन-सारोद्धार
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शंका—यश:कीर्ति नामकर्म का उदय होने पर भी कुछ व्यक्ति उसकी निंदा भी करते हैं। ऐसी स्थिति में यश:कीर्तिनाम कर्म का उदय व्यर्थ नहीं होगा?
उत्तर—यशनाम कर्म का उदय मध्यस्थ गुणी आत्मा की अपेक्षा से ही है। मध्यस्थ और गुणानुरागी 'दूसरों के सद्गुणों का मूल्यांकन कर सकते हैं।' ईर्ष्यालु आत्मा तो गुणी व्यक्तियों की भी निन्दा ही करते हैं। ऐसे व्यक्ति की अपेक्षा यशनाम कर्म का उदय व्यर्थ है ऐसा नहीं माना जा सकता। __कहा है कि शरीर में धातुओं की विषमता के कारण व्यक्ति को दूध कड़वा और नीम मधुर लगता है। फिर भी यह प्रमाणभूत नहीं होता। प्रत्युत द्रव्य के गुणों का विपरीत कथन करने के कारण व्यक्ति स्वयं अप्रमाणभूत हो जाता है। इसलिये 'यश:कीर्ति' नामकर्म का उदय सद्गुणी आत्मा की अपेक्षा से ही है।
(४०.) अपयश:कीर्तिनाम—जिस कर्म के उदय से जीव मध्यस्थ और गुणानुरागी आत्माओं के द्वारा भी अप्रशंसनीय बनता है।
(४१.) निर्माणनाम—जिस कर्म के उदय से अंग और उपांग शरीर में अपनी-अपनी जगह व्यवस्थित होते हैं वह निर्माण नामकर्म है। इसे सूत्रधार की उपमा दी है। जैसे कारीगर शिल्पियों द्वारा निर्मित हाथ, पाँव आदि अवयवों को मूर्ति में यथास्थान व्यवस्थित करता है वैसे अंगोपांग नामकर्म द्वारा निर्मित अवयवों को निर्माण-नामकर्म शरीर में यथास्थान व्यवस्थापित करता है। इस कर्म के अभाव में आज जिस जगह हाथ-पाँव आदि व्यवस्थित है उस स्थान का कोई नियम नहीं होता।
(४२.) तीर्थंकरनाम—जिस कर्म के उदय से तीर्थंकर पद की प्राप्ति होती है उसे तीर्थंकर नामकर्म कहते हैं। इस कर्म का उदय उसी जीव को होता है, जिसे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ हो। इस कर्म के प्रभाव से अष्ट प्रातिहार्य-संपदा, चौंतीस अतिशय एवं पैंतीस वाणी के गुण प्रकट होते हैं। जीव अपरिमित ऐश्वर्य का भोक्ता होता है। संसार के प्राणियों को वह अपनी अधिकार युक्त वाणी से मार्ग दिखलाता है जिस पर स्वयं चलकर कृतकृत्य बना है। इसलिये देवेन्द्र, नरेन्द्र भी उनकी अत्यन्त श्रद्धा से सेवा करते हैं ॥१२६२-१२६७।। विशेष अपेक्षा से नामकर्म के ३ भेद होते हैं।
(i) बयालीस प्रकार का (ii) सड़सठ प्रकार का (iii) एक सौ तीन प्रकार का (i) बयालीस प्रकार का पिण्डप्रकृति चौदह-गति-जाति-शरीर-अंगोपांग-बंधन-संघातन-संघयण-संस्थान-वर्ण-गंध-रस
स्पर्श-आनुपूर्वी-विहायो गति । प्रत्येक आठ–पराघात-उच्छ्वास-आतप-उद्योत-अगुरुलधु-निर्माण-तीर्थकर और उपघात नाम कर्म । त्रसदशक-त्रस-बादर-पर्याप्ता-प्रत्येक-स्थिर-शुभ-सुभग-सुस्वर-यशकीर्ति और आदेय नामकर्म। स्थावरदशक स्थावर-सूक्ष्म-अपर्याप्त-साधारण-अस्थिर-अशुभ-दुर्भग-दुस्वर-अनादेय और अयश । पूर्वोक्त बयालीस प्रकृतियाँ गति आदि के भेद की अविवक्षा से होती है ।
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