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________________ २७२ द्वार २१६ - -- एक साथ उत्पन्न होने वाले साधारण शरीरी जीवों के शरीर की निष्पत्ति भी एक साथ ही होती है। श्वासोच्छ्वास के पुद्गलों को ग्रहण करना, श्वासोच्छ्वास को लेना व छोड़ना सभी एक साथ ही होता है। एक जीव की ग्रहण क्रिया सभी की है तथा बहुतों की ग्रहण क्रिया एक जीव की है। साधारण आहार एवं साधारण श्वासोच्छ्वास यही साधारण जीवों का लक्षण है। (२९.) स्थिरनाम—जिस कर्म के उदय से दांत, हड्डी, ग्रीवा आदि शरीर के अवयव स्थिर अर्थात् निश्चल होते हैं, उसे स्थिरनाम कर्म कहते हैं। (३०.) अस्थिरनाम-जिस कर्म के उदय से अवयव चलायमान होते हैं, उसे अस्थिरकर्म कहते (३१.) शुभनाम-जिस कर्म के उदय से नाभि के ऊपर के अवयव शुभ होते हैं। हाथ, सिर, आदि अवयवों को छूने से किसी को अप्रीति नहीं होती, जैसे कि पाँव छूने से होती है। यही उन अवयवों का 'शुभत्व' होता है। ___ (३२.) अशुभनाम—जिस कर्म के उदय से नाभि के नीचे का भाग अशुभ होता है। जिसे छूने से दूसरों को अप्रीति उत्पन्न हो यही उसकी अशुभता है। प्रश्न-स्त्री आदि प्रिय व्यक्ति, गुरु आदि श्रद्धेय व्यक्ति के पांव का स्पर्श भी प्रीतिकर होता है अत: उसे एकांत अशुभ कैसे कह सकते हैं? उत्तर–नाभि से नीचे का भाग वास्तव में अशुभ है। यही कारण है कि पाँव लगने से अन्य व्यक्ति रुष्ट होते हैं। स्त्री के पाँव का स्पर्श तो मोह के कारण अच्छा लगता है व गुरु आदि के चरण श्रद्धा के कारण पूज्य है। अत: पूर्वोक्त मान्यता में कोई विरोध नहीं आता। (३३.) सुभगनाम-जिस कर्म के उदय से, किसी प्रकार का उपकार न करने पर, या किसी तरह से सम्बन्ध न होने पर भी जीव सब को प्रिय लगता है। (३४.) दुर्भगनाम-जिस कर्म के उदय से उपकार करने वाला भी अप्रिय लगता है। (३५.) सुस्वरनाम-जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर मधुर और प्रीतिकर होता है। (३६.) दुस्वरनाम-जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर कर्कश और अप्रिय लगता है। (३७.) आदेयनाम-जिस कर्म के उदय से जीव का वचन सर्वमान्य होता है। (३८.) अनादेयनाम-जिस के कर्म के उदय से जीव का वचन उपयुक्त होते हुए भी अनादरणीय होता है। (३९.) यश:कीर्तिनाम-जिस कर्म के उदय से संसार में यश और कीर्ति फैलती है। तप, शौर्य, त्याग आदि के द्वारा उपार्जित यश का शब्दों द्वारा कीर्तन-प्रशंसा करना यश: कीर्ति है। यश:-सामान्य ख्याति यश है। अथवा चारों दिशाओं में फैली हुई, पराक्रम द्वारा प्राप्त तथा लोकों द्वारा होने वाली प्रशंसा यश है। कीर्ति-सद्गुणों की प्रशंसा अथवा दानादि के कारण एक दिशा में होने वाली प्रशंसा कीर्ति है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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