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प्रवचन-सारोद्धार
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जह सगलसरिसवाणं, सिलेसमिस्साण वट्टिया वट्टी। पत्तेयसरीराणं तह होति शरीरसंघाया। जह वा तिलपप्पडिआ, बहुएहिं तिलेहिं मीसिया संति ।
पत्तेयसरीराणं, तह होंति सरीरसंघाया ।। __ जिस प्रकार सरसों को चिकने द्रव्य के साथ मिश्रित करने पर वर्ति-सलाई जैसी बन जाती है। जैसे बहुत सारे तिलों को चासनी आदि से मिश्रित करने पर तिलपट्टी बन जाती है किन्तु बट्टी में और तिलपट्टी में सरसों और तिल स्पष्ट रूप से अलग-अलग दिखाई देते हैं वैसे कपित्थ आदि वृक्ष के मूल, तना, छाल, डाल आदि में स्थित असंख्यात उन जीवों के शरीर भिन्न-भिन्न हैं। जैसे सरसों, तिल आदि चासनी आदि चिकने द्रव्य के कारण मिश्रित हो कर एकरूप दिखाई देते हैं वैसे प्रत्येकशरीर वाले जीव तथाविध प्रत्येक नामकर्म के उदय से परस्पर भिन्न-भिन्न शरीर वाले होने पर भी एकाकार दिखाई देते
(२८.) साधारणनाम—जिस कर्म के उदय से अनन्त जीवों का एक शरीर होता है।
प्रश्न- अनंत जीवों का एक शरीर कैसे हो सकता है ? कारण सर्वप्रथम जो जीव उत्पत्ति-स्थान में आता है, शरीर रचना का अधिकारी वही होता है। जब शरीर के सर्व प्रदेशों में उसके आत्मप्रदेश व्याप्त हो जाते हैं तब अन्य जीव उसमें कैसे रह सकते हैं?
और, थोड़ी देर के लिये मान लिया जाये कि—एक शरीर में अनेक जीव रहते हैं, किन्तु जिसने इस शरीर की रचना की, अधिकारी वही जीव होगा और पर्याप्त-अपर्याप्त की व्यवस्था, श्वासोच्छ्वास के ग्रहण-मोचन का आधार भी वही होगा। अन्य जीवों में ये व्यवस्थायें कैसे घटेंगी?
उत्तर—यह प्रश्न जिनवचन की अज्ञानता का सूचक है। इसका समाधान यह है कि तथाविध कर्मवश, अनंतजीव एक ही साथ उत्पत्तिस्थान में आकर पैदा होते हैं तथा एक ही साथ शरीरयोग्य पर्याप्ति की रचना प्रारंभ करते हैं और साथ ही पूर्ण करते हैं। श्वासोच्छ्वास योग्य पुद्गलों का ग्रहण-मोचन साथ ही करते हैं अर्थात् एक जीव का ग्रहण-मोचन सभी जीव का साधारण है । अत: पूर्वोक्त विरोध की यहाँ यत्किंचित् भी संभावना नहीं है। प्रज्ञापना में कहा है
समयं वक्कंताणं समयं तेसिं सरीर निष्फत्ती। समयं आणुग्गहणं, समयं उस्सास-निस्सासा ।। एगस्सउ जं गहणं, बहूणं साहारणाण तं चेव । जं बहुयाणं गहणं, समासओ तं पि एगस्स। साहारणमाहारो, साहारणमाणुपाणगहणं च । साहारणजीवाणं, साहारणलक्खणं एयं ।
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