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________________ द्वार २१६ २७० विशेषण रखा। इसका तात्पर्य यह है कि यहाँ गति से नरकादि पर्याय रूप गति न लेकर आकाश में गमनरूप गति लेना है अर्थात् यहाँ गति का अर्थ है 'चाल'। (२१.) त्रस नाम-वेदना के अनुभव से जो जीव धूप से छाया में और छाया से धूप में गति करता है, उसे बस कहते हैं, और जिस नामकर्म के उदय से जीव त्रस बनता है, यह त्रसनाम है । (२२.) स्थावर नाम-शीत-ताप से पीड़ित होने पर भी जो जीव अन्यत्र न जा सके किन्तु एक स्थान में ही स्थिर रहे वह 'स्थावर' है और जिस कर्म के उदय से जीव स्थावर बनता है, वह स्थावर नामकर्म है। इसका उदय एकेन्द्रिय जीवों में होता है। यद्यपि वाय और आग गतिमान है, तथापि उनकी गति त्रास, भय या पीड़ा के कारण न होने से वे त्रस नहीं कहलाते। स्वाभाविक गतिशील होने से उन्हें गतित्रस अवश्य कहा जाता है। (२३.) बादर नाम-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर स्थूल परिणाम वाला होता है। आँख जिसे देख सके वह बादर, ऐसा बादर का अर्थ नहीं है, क्योंकि एक-एक बादर जीव का शरीर आँख से नहीं देखा जा सकता, किन्तु जीवों का समुदाय ही दृष्टिगोचर होता है। (२४.) सूक्ष्म नाम जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर सूक्ष्म परिणाम वाला होता है का अर्थ है...जो किसी को रोक न सके और न किसी से रुके। सूक्ष्म शरीर अकेला तो दृष्टिगोचर हो ही नहीं सकता, किन्तु इसका समुदाय भी दृष्टिगोचर नहीं होता। (२५.) पर्याप्त नाम—जिस कर्म के उदय से जीव स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही मरता (२६.) अपर्याप्त नाम—जिस कर्म के उदय से जीव स्वयोग्य पर्याप्तिओं को पूर्ण किये बिना ही मर जाता है। (२७.) प्रत्येक नाम—जिस कर्म के उदय से एक शरीर का मालिक एक ही जीव होता है। इसका उदय, देव, नरक, मनुष्य, द्वीन्द्रिय....त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय....पृथ्वी आदि तथा कपित्थ आदि प्रत्येक वनस्पति में होता है। शंका-'कपित्थ' आदि यदि प्रत्येक नामकर्म वाले हैं तो 'प्रज्ञापना' के अनुसार उसके मूल, स्कंध, त्वचा और शाखा में रहने वाले असंख्याता....असंख्याता जीवों के शरीर भी अलग-अलग होने चाहिये, किन्तु ऐसा तो नहीं लगता, मूल से लेकर फलपर्यन्त शरीर तो एकाकार ही दिखाई देता है, जैसे किसी व्यक्ति का सिर से पाँव तक अखण्ड शरीर होता है। इस प्रकार एक शरीर में अनेक जीव होने से 'कपित्थ' आदि प्रत्येकशरीरी कैसे घटेंगे? उत्तर-प्रज्ञापना के अनुसार 'कपित्थ' आदि के मूल....स्कंध...त्वचा आदि में असंख्याता...असंख्याता जीव हैं तो उनके शरीर भी अलग-अलग हैं। मूल से लेकर फल तक पेड़ की जो अखण्ड एकरूपता दिखाई देती है वह मात्र पुद्गलों के तथाविध परिणाम के कारण है। जैसे 'तिलपट्टी' में तिल अलग-अलग होने पर भी तथाविध परिणाम से वह एकाकार बनती है वैसे ही प्रबल राग-द्वेष से संचित तथाविध प्रत्येक नामकर्म के उदय से जीवों का शरीर अलग-अलग होने पर भी मिश्रित परिणमन के कारण अखण्ड एकरूप दिखाई देता है। प्रज्ञापना में कहा हैJain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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