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________________ प्रवचन-सारोद्धार २६९ : 38:38.५०८८351 उच्छ्वास लब्धि के लिये भी ऐसा ही समझना चाहिये। उसमें भी उच्छ्वास नामकर्म का उदय और वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम दोनों कारण होने से वह औदयिकी और क्षायोपशमिकी दोनों ही है। प्रश्न-यदि उच्छ्वास नामकर्म के उदय से ही उच्छ्वास लब्धि प्राप्त होती है तो श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति की क्या आवश्यकता है? उत्तर-उच्छ्वास नामकर्म के उदय से उच्छ्वास-नि:श्वास लेने और छोड़ने की शक्ति प्राप्त होती है। किन्तु उच्छ्वास पर्याप्ति श्वासोच्छ्वास वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर श्वासोच्छ्वास रूप में परिणमन करने की शक्ति देता है। अत: श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति की आवश्यकता है। प्राण श्वासोच्छ्वास लेने और छोड़ने के व्यापार को प्राण कहते हैं। तीर चलाने की कला आने पर भी कोई व्यक्ति उसे प्रत्यंचा पर चढ़ाये बिना, निशाना नहीं लगा सकता, वैसे उच्छ्वास-नि:श्वास योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर उस रूप में परिणत करने की शक्ति के अभाव में उच्छ्वास-नि:श्वास लेना और छोड़ना संभव नहीं हो सकता, अत: उच्छ्वास नामकर्म की सफलता के लिये उच्छ्वास पर्याप्ति का होना आवश्यक है। (जिस लब्धि के प्रयोग में पुद्गलों की आवश्यकता होती है, वे औदयिकी हैं, कारण पुद्गलों का ग्रहण कर्मोदय के बिना नहीं होता।) (१८.) आतप नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर स्वयं उष्ण न होकर भी उष्ण प्रकाश करता है, उसे आतपनाम कर्म कहते हैं। इसका उदय सूर्य विमानवासी बादर पृथ्वीकाय जीवों को होता है। यद्यपि अग्निकाय जीवों का शरीर भी उष्ण है, परन्तु वह आतप नामकर्म के उदय से नहीं किन्तु उष्णस्पर्श नामकर्म के उदय से होता है तथा उसमें प्रकाश उत्कटकोटि के रक्तवर्ण-नामकर्म के उदय से है। __ (१९.) उद्योत नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर उष्णस्पर्श रहित, शीत प्रकाश फैलाता है । लब्धिधारी मुनि और देव के उत्तरवैक्रिय शरीर से, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं के विमानवर्ती बादर पृथ्वीकाय जीवों के शरीर से, रत्न तथा औषधि आदि से जो शीतल प्रकाश निकलता है, वह उद्योत नामकर्म का परिणाम है। (२०.) विहायोगति-आकाश में गमन करना। इसके दो भेद हैं (i) शुभविहायोगति—जिस कर्म के उदय से जीव की चाल हाथी, बैल, हंस आदि की तरह शुभ हो। (ii) अशुभविहायोगति-जिस कर्म के उदय से जीव की चाल ऊँट, गधा, भैंस आदि की तरह अशुभ हो। प्रश्न-आकाश सर्व व्यापक होने से उसके सिवाय गति संभव नहीं है तो 'विहायोगति' में (विहायसा गति) विहायस् = आकाश, ऐसा विशेषण क्यों दिया? उत्तर-यदि यहाँ 'विहायोगति' न कहकर मात्र ‘गति' ही कहते तो नामकर्म की सर्वप्रथम प्रकृति 'गति' के साथ पुनरुक्ति की शंका होती। इस शंका के निवारणार्थ यहाँ 'गति' के आगे 'विहायस्' ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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