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________________ २६८ द्वार २१६ (ii) मृदुस्पर्श नामकर्म—जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर हंस के पंख, मक्खन आदि जैसा कोमल हो। (iii) गुरुस्पर्श नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर वज्र, लोहे जैसा भारी हो। (iv) लघुस्पर्श नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर आक की रुई की तरह हलका हो। (v) शीतस्पर्श नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर कमल-दंड या बर्फ की तरह ठंडा हो। (vi) उष्णस्पर्श नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर अग्नि की तरह उष्ण हो। (vii) स्निग्धस्पर्श नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर घी के समान चिकना हो । (viii) रुक्षस्पर्श नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर राख के समान रूखा हो। (१३.) अगुरुलघु नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर इतना भारी नहीं होता कि उसे संभालना कठिन हो जाये अथवा इतना हलका भी नहीं होता कि हवा में उड़ जाये, किन्तु मध्यम परिणामी होता है, वह अगुरुलघु नामकर्म कहलाता है। (१४.) उपघात नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव अपने ही अवयवों से जैसे प्रतिजिह्वा, चोर दांत, होठ से बाहर निकले हुए दांत, छठी अंगुली, नाखून आदि से क्लेश पाता है, वह उपघात नामकर्म (१५.) पराघात नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव कमजोर होते हुए भी अजेय समझा जाता है। उसके चेहरे पर तेज और वाणी में ऐसा ओज होता है कि लोग उसे देखकर क्षुब्ध हो जाते हैं। (१६.) आनुपूर्वी नामकर्म—जिस कर्म के उदय से जीव विग्रह-गति से अपने उत्पत्ति-स्थान पर पहुँचता है, उसे आनुपूर्वी नामकर्म कहते हैं। इस कर्म के लिये नाथ का दृष्टान्त दिया जाता है। जैसे इधर-उधर भटकते हुए बैल को नाथ डालकर जहाँ चाहे वहाँ ले जा सकते हैं, उसी प्रकार समश्रेणी से गति करते हुए जीव को आनुपूर्वी नामकर्म, उसे जहाँ उत्पन्न होना हो, वहाँ पहुँचा देता है। इसके चार भेद हैं १. नरकानुपूर्वी २. देवानुपूर्वी ३. तिर्यगानुपूर्वी ४. मनुष्यानुपूर्वी । (१७.) उच्छ्वास नामकर्म—जिस कर्म के उदय से जीव श्वासोच्छ्वास लब्धि से युक्त होता है, उसे उच्छ्वास नामकर्म कहते हैं। प्रश्न-कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त शक्ति ही लब्धि कहलाती है, अर्थात् सभी लब्धियाँ क्षयोपशमजन्य ही होती हैं तो उच्छ्वास-लब्धि औदयिकी (उच्छ्वास नामकर्म के उदय से जन्य) कैसे हो सकती है? उत्तर-यद्यपि सभी लब्धियाँ क्षायोपशमिकी होती हैं तथापि वैक्रिय, आहारक आदि कुछ लब्धियाँ औदयिकी भी होती हैं। इनकी उत्पत्ति में कारण भूत कर्म का उदय एवं वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम दोनों ही निमित्त बनते हैं। अत: इनके औदयिक और क्षायोपशमिक होने में कोई विरोध नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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