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________________ प्रवचन-सारोद्धार २६३ ६. गोत्र कर्म-इसके दो भेद हैं(i) नीचगोत्र - जिस कर्म के उदय से जीव ज्ञानादि सम्पन्न होने पर भी कुल-जाति आदि से हीन होने के कारण निन्दनीय गिना जाता है। (ii) ऊँच गोत्र - जिस कर्म के उदय से उत्तम जाति, कुल, तप, रूप, ऐश्वर्य आदि ___मिलता है तथा सत्कार-सम्मान मिलता है। ७. अन्तराय कर्म-इसके ५ भेद हैं(i) दानान्तराय - दान देने योग्य वस्तु हो, गुणवान पात्र सम्मुख हो, दान का फल जानता हो तो भी जिस कर्म के उदय से जीव को दान देने का उत्साह नहीं होता। (ii) लाभान्तराय - दाता उदार हो, देने योग्य पदार्थ मौजूद हो, लेने वाला कुशल याचक सम्मुख हो, तो भी जिस कर्म के उदय से जीव को लाभ न हो। (iii) भोगान्तराय 7 (iv) उपभोगान्तराय_J- भोगोपभोग के साधन विद्यमान हो, व्यक्ति को वैराग्य भी न हो, तो भी जिस कर्म के उदय से जीव उन वस्तुओं का उपयोग न कर सके। भोग-जो वस्तु एक ही बार उपयोग में आती है जैसे आहार, फल, फूल आदि । उपभोग–जो पदार्थ बार-बार भोगे जाते हैं जैसे मकान, वस्त्र, आभूषण आदि । (v) वीर्यान्तराय - बलवान, रोग-रहित एवं युवा होने पर भी जिस कर्म के उदय से जीव कुछ भी काम नहीं कर सकता ॥१२५९-१२६० ॥ . ८. नामकर्म-इसके बयालीस, सड़सठ, तिरानवे व एक सौ तीन भेद हैं ॥१२६१ ।। (१.) गतिनामकर्म—जिस नाम कर्म के उदय से जीव देव, नारक आदि अवस्थाओं को प्राप्त करता है। यह नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव के भेद से चार प्रकार का है। (२.) जातिनामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि कहलाता है। इसके पाँच भेद हैं—() एकेन्द्रिय (ii) द्वीन्द्रिय (iii) त्रीन्द्रिय (iv) चतुरिन्द्रिय (v) पंचेन्द्रिय । कान, नाक आदि बाह्य इन्द्रियाँ, अंगोपांग नामकर्म एवं इन्द्रिय पर्याप्ति के सामर्थ्य का फल है, किन्तु शब्दादि विषयों को ग्रहण करने की शक्ति रूप भाव इन्द्रिय, इन्द्रियावरणीय कर्म के क्षयोपशम का परिणाम है। कहा है-“क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि” इति वचनात् । पर जाति नामकर्म का परिणाम इन दोनों से भिन्न है। वह समानजातीय जीवों की एकता का बोधक है, जैसे मात्र स्पर्शेन्द्रिय वाले सभी जीवों में 'ये एकेन्द्रिय हैं ऐसा बोध कराना, जाति नामकर्म का फल है। कहा है कि-"अव्यभिचारिणा सादृश्येनैकीकृतोऽर्थोऽसौ जातिरिति”-व्याभिचार-रहित सादृश्य के द्वारा विवक्षित पदार्थों में एकरूपता की प्रतीति होना जाति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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