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द्वार २१६
२६२
(iv)
भय
कषायसहवर्तित्वात्, कषायप्रेरणादपि ।
हास्यादिनवकस्योक्ता नोकषायकषायता ।। ये नव कषाय पूर्वोक्त सोलह कषाय के सहचारी हैं। पूर्वोक्त कषाय का क्षय होने के बाद नोकषाय भी नहीं रहते । कषायों का क्षय होते ही क्षपक इनका क्षय करने लग जाता है। अथवा नोकषाय का उदय होने पर कषायों का उदय अवश्य होता ही है।
इनके नौ भेद हैं(i) हास्य - जिस कर्म के उदय से सकारण या अकारण हँसी आती हो। (ii) रति -- जिस कर्म के उदय से पदार्थों में अनुराग हो। (iii) अरति - जिस कर्म के उदय से पदार्थों से अप्रीति या उद्वेग हो।
- जिस कर्म के उदय से जीव भयभीत हो। (v) शोक जिस कर्म के उदय से जीव इष्ट का वियोग होने पर रुदन,
विलाप आदि करे। (vi) जुगुप्सा - जिस कर्म के उदय से मांस आदि बीभत्स पदार्थों को देखकर
घृणा पैदा हो। (vii) स्त्रीवेद - जिस कर्म के उदय से पुरुष के साथ भोग करने की इच्छा हो।
जैसे, पित्त के प्रकोप में मिठाई खाने की इच्छा होती है। इसका
स्वभाव बकरी की लीडी की आग की तरह होता है। (viii) पुरुषवेद - जिस कर्म के उदय से स्त्री के साथ भोग करने की इच्छा हो ।
जैसे, कफ के प्रकोप में खट्टा खाने की इच्छा होती है। इसका
स्वभाव घास की अग्नि की तरह है। (ix) नपुंसकवेद - जिस कर्म के उदय से पुरुष और स्त्री दोनों के साथ भोग करने
की इच्छा हो। जैसे, पित्त और कफ दोनों का प्रकोप एक साथ होने पर कांजी खाने की इच्छा होती है। इसका स्वभाव नगर
के दाह जैसा है। इस प्रकार कुल मिलाकर मोहनीय कर्म के अट्ठावीस भेद हुए ॥१२५६-५८ ।। ५. आयुकर्म-इसके चार भेद हैं(i) नरकायु __ - नरक जीवों के द्वारा भोगा जाता हुआ आयु । (ii) तिर्यंचायु - तिर्यंच जीवों के द्वारा भोगा जाता हुआ आयु । (iii) मनुष्यायु - मनुष्य द्वारा भोगा जाता हुआ आयु । (iv) देवायु - देवों द्वारा भोगा जाता हुआ आयु ।
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