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________________ प्रवचन-सारोद्धार २६१ : ०८Mus सालपदा-NCC: (iii) सम्यक्त्व मोहनीय - जिसके उदय से जिन-प्रणीत तत्त्व पर सम्यक् श्रद्धा हो। (२) चारित्र मोहनीय कर्म–सावध से निवृत्त होकर निरवद्य में प्रवृत्ति कराने वाला आत्मा का विरतिरूप-परिणाम चारित्र है, उसे विकल करने वाला कर्म चारित्र-मोहनीय कहलाता है। यह कषाय और नोकषाय के भेद से दो प्रकार का है। (अ) कषाय-जहाँ परस्पर जीवात्मा एक-दूसरे की हिंसा करते हैं वह कष = संसार है और जिनके द्वारा जीव ऐसे संसार में आता है वे कषाय कहलाते हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से कषाय मूलत: चार प्रकार के हैं (i) क्रोध --- आत्मा का अक्षमारूप परिणाम । (ii) मान - जाति, कुल आदि की ऊँचता से उत्पन्न गर्व । (iii) माया - कपट, स्वभाव का टेढ़ापन, वंचना करने का भाव। (iv) लोभ - धन, कुटुम्ब, शरीर आदि पदार्थों की ममता लोभ है। ये चारों कषाय अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन के भेद से प्रत्येक चार-चार प्रकार के हैं। (i) अनन्तानुबन्धी—जिन कषायों की परम्परा अनन्त भवों तक चलती है, वह अनन्तानुबंधी कषाय है। ये कषाय नरक गति के बंध का कारण एवं सम्यक् दर्शन के घातक हैं। (ii) अप्रत्याख्यानी—देशविरति रूप प्रत्याख्यान का घातक एवं तिर्यंचगति योग्य कर्मों के बंध का कारण जो कषाय है वह अप्रत्याख्यानी कहलाता है। (iii) प्रत्याख्यानी–सर्व-विरतिरूप चारित्र का घातक एवं मनुष्यगति योग्य कर्मों के बंध का कारण जो कषाय है वह प्रत्याख्यानी कहलाता है। (iv) संज्वलन-परीषह, उपसर्ग आने पर संयमी आत्मा को जो अल्प-मात्रा में कषाय पैदा होता है, वह संज्वलन है। यह कषाय देवगति योग्य कर्मों का कारण एवं यथाख्यात-चारित्र का अवरोधक प्रश्न-अनन्तानुबंधी कषाय की स्थिति में शेष तीन कषाय अवश्य रहते हैं। अनन्तानुबंधी के साथ उनकी परम्परा भी अनन्त भव तक चलती है, तो उन्हें अनन्तानुबंधी क्यों नहीं कहा जाता? उत्तर-यद्यपि अनन्तानुबन्धी कषाय कभी भी प्रत्याख्यानी आदि के अभाव में नहीं होता। अनन्तानुबन्धी के साथ शेष तीन कषाय निश्चित रूप से रहते हैं, तथापि वे अनन्तानुबंधी नहीं कहलाते, क्योंकि अनन्तानुबंधी कषाय का अस्तित्व मिथ्यात्व के उदय के बिना नहीं हो सकता। जबकि शेष तीन कषायों के लिये ऐसा कुछ भी नियम नहीं है। इसलिये इन्हें अनन्तानुबंधी नहीं कहा जा सकता। ये अनन्त भवभ्रमण के कारण नहीं बनते। (ब) नोकषाय-नो शब्द का अर्थ है साहचर्य अर्थात् कषायों के उदय के साथ जिनका उदय होता है अथवा जो कषायों को उभारते हैं, वे नोकषाय हैं। कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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