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________________ २६४ द्वार २१६ है। स्पर्शेन्द्रिय से जन्य ज्ञान के आवरण के क्षयोपशम से उत्पन्न स्पर्शमात्र के ज्ञानवाले जीव एकेन्द्रिय हैं। इस प्रकार यावत् स्पर्शन-रसन घ्राण-चक्षु और श्रोत्र जन्य जो ज्ञान उसके आवरण के क्षयोपशम से स्पर्श रस गंध रूप व शब्द के ज्ञान वाले जीव पंचेन्द्रिय है-समझना चाहिये। (३.) शरीरनामकर्म-प्रतिक्षण जिसमें पुद्गलों का चय-उपचय होता रहता है, वह शरीर कहलाता है और जिस कर्म से शरीर मिलता है, वह शरीरनामकर्म है। इसके पाँच प्रकार हैं(i) औदारिक शरीर - जिस कर्म के उदय से जीव औदारिक वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके शरीर रूप में परिणत करता है। (ii) वैक्रिय शरीर - जिस कर्म के उदय से जीव वैक्रिय वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके शरीर रूप में परिणत करता है। (iii) आहारक शरीर – जिस कर्म के उदय से जीव आहारक वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके शरीर रूप में परिणत करता है। (iv) तैजस् शरीर - जिस कर्म के उदय से जीव तैजस् वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके तैजस्-शरीर रूप में परिणत करता है । (v) कार्मण शरीर - जिस कर्म के उदय से जीव कार्मण वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर कार्मण शरीर रूप में परिणत करता है। यद्यपि कार्मण शरीर-नामकर्म और कार्मण शरीर ये दोनों कार्मण वर्गणा के पुद्गलों से ही निष्पन्न होते हैं तथापि कार्मण-शरीर-नामकर्म कारण है और कार्मण शरीर उसका कार्य है। इस कारण दोनों अलग हैं, अर्थात् कार्मण शरीर नामकर्म का उदय होने पर ही जीव कार्मण-वर्गणा से कार्मण शरीर को निर्मित करने योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर शरीर रूप में परिणत करता है तथा कार्मण शरीर नामकर्म आठों ही कर्मों का उत्पत्तिस्थान, आधार एवं संसारी जीवों को भवान्तर में भ्रमण कराने का कारण है। (४.) अंगोपांग नामकर्म : अंग = दो भुजा + दो जंघा + १ पीठ + सिर + छाती + पेट। उपांग = अंग के साथ जुड़े हुए छोटे अवयव उपांग हैं जैसे अंगुली आदि । अंगोपांग = अंगुलियों की रेखाएँ, पर्व आदि अंगोपांग हैं। जिस नामकर्म के उदय से अंग, उपांग और अंगोपांग मिलते हैं, वह अंगोपांग नामकर्म कहलाता है। अंगोपांग आदि तीन शरीरों के ही होते हैं क्योंकि तैजस और कार्मण शरीर का आत्म प्रदेशों से अतिरिक्त स्वतन्त्र कोई आकार नहीं होता इसलिये इनके अंगोपांग नहीं होते। बंधन नामकर्म जिस प्रकार लाख, गोंद आदि पदार्थ, दो चीजों को आपस में जोड़ देते हैं वैसे ही बंधन नामकर्म शरीर नामकर्म के बल से पूर्वगृहीत औदारिकादि शरीर के पुद्गलों के साथ वर्तमान में ग्रहण किये जा रहे शरीर-पुद्गलों को परस्पर जोड़ देता है। यदि बंधन नामकर्म नहीं होता तो शरीराकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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