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द्वार २१६
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मन और नेत्र का व्यंजनावग्रह नहीं होता। कारण जहाँ विषय और इन्द्रिय का सम्बन्ध होता है, वहीं व्यंजनावग्रह होता है, अन्यत्र नहीं। मन और नेत्र अप्राप्यकारी होने से अपने विषय से सम्बद्ध हुए बिना ही उसे ग्रहण कर लेते हैं अत: उनका व्यंजनावग्रह नहीं होता।
(ब) अर्थावग्रह-शब्द, रूपादि विषय का सामान्य ज्ञान, जैसे 'यह कुछ है' अर्थावग्रह कहलाता है। इसके छ: भेद हैं—(i) श्रोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह (ii) चक्षुरिन्द्रिय अर्थावग्रह (iii) घ्राणेन्द्रिय अर्थावग्रह (iv) रसनेन्द्रिय अर्थावग्रह (v) स्पर्शेन्द्रिय अर्थावग्रह (vi) मन: अर्थावग्रह ।
(२) ईहा-अवग्रह के द्वारा गृहीत वस्तु के विषय में 'यह क्या है ? लकड़े का ढूंठ है या पुरुष है?' इस प्रकार का उहापोह करते हुए प्रस्तुत वस्तु के धर्मों का अन्वेषण करना ईहा है।
यह जंगल है. सर्य अस्त हो गया है. इसलिये जो दिखाई दे रहा है. वह आदमी नहीं हो सकता तथा इस पर पक्षी बैठे हुए हैं अत: सामने दिखाई देने वाली वस्तु कामदेव के शत्रु शंकर भगवान की नामराशि वाली है अर्थात् स्थाणु (ठूठ) है। इस प्रकार वस्तुगत अन्वय धर्मों का स्वीकार एवं व्यतिरेक धर्मों का परिहार करने वाला ज्ञान विशेष ईहा है। ईहा मन और पाँच इन्द्रियों से उत्पन्न होती है अत: इसके भी छ: भेद हैं।
(३) अपाय-ईहा द्वारा ज्ञात पदार्थ के विषय में 'यह वही है' ऐसा निश्चयात्मक ज्ञान अपाय है। पूर्ववत् इसके भी छ: भेद हैं।
(४) धारणा–अपाय द्वारा निश्चित पदार्थ का कालान्तर में विस्मरण न हो, इस प्रकार दृढ़-ज्ञान करना धारणा है। यह तीन रूप में होती है। (i) अविच्युति (ii) वासना और (iii) स्मृति ।
(i) अविच्युति - किसी एक वस्तु के प्रति उचित काल तक सतत उपयोग रखना। (ii) वासना - अविच्युति के द्वारा आत्मा में संगृहीत वस्तु विशेष विषयक
संस्कार, जो कालान्तर में उस वस्तु की स्मृति कराने में सक्षम
है, वासना है। (iii) स्मृति
- जिस पदार्थ का प्रथम अनुभव हो चुका है उस पदार्थ का कालान्तर
___ में निमित्त पाकर ‘वही है' ऐसा स्मरण होना। धारणा के भी पूर्ववत् ६ भेद हैं। इस प्रकार व्यंजनावग्रह के = ४ भेद हुए। अर्थावग्रह के = ६ भेद
इस प्रकार श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के ईहा के = ६ भेद
कुल मिलाकर २८ भेद हैं। अपाय के = ६ भेद
धारणा के = ६ भेद ... २. अश्रुतनिश्रित-इसके चार भेद हैं(i) औत्पातिकी मति
(ii) वैनयिकी मति । (iii) कार्मिकी मति
(iv) पारिणामिकी मति ।
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