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________________ प्रवचन-सारोद्धार २५५ 3000RRORS -विवेचनउत्तर-प्रकृति १५८ हैं(i) ज्ञानावरणीय ___= ५ (v) आयु = ४ (ii) दर्शनावरणीय = ९ (vi) गोत्र = २ (iii) वेदनीय = २ (vii) अन्तराय = ५ (vi) मोहनीय = २८ __ (viii) नामकर्म = १०३ आठ कर्म की कुल = १५८ उत्तरप्रकृतियाँ हैं ॥१२५१-५२ ॥ १. ज्ञानावरणीय जो कर्म जीव के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान व केवलज्ञान को आवृत्त करता है....ढंकता है वह ज्ञानावरण कर्म है। उसके ५ प्रकार हैं (i) मतिज्ञानावरण-मतिज्ञान = मनन करना मति है। यहाँ ‘मन्' धातु ज्ञानार्थक है। अत: जिसके द्वारा ज्ञान किया जाये वह मति है। अथवा इन्द्रिय और मन के द्वारा जो ज्ञान होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं। इसके दो भेद हैं— श्रुतनिश्रित व अश्रुतनिश्रित। श्रुतनिश्रित-श्रुताभ्यास से परिनिष्ठित बुद्धि द्वारा व्यवहार काल में सही ज्ञान होना। अश्रुतनिश्रित-श्रुताभ्यास के बिना ही विशिष्ट क्षयोपशम द्वारा ज्ञान होना। श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के ४ भेद हैं—(१) अवग्रह (२) ईहा (३) अपाय और (४) धारणा। व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह के भेद से अवग्रह दो प्रकार का है--- (अ) व्यंजनावग्रह : ‘व्यंजन' के दो अर्थ हैं। जिसके द्वारा शब्द, रूपादि पदार्थ प्रकट किये जाते हों, वह 'व्यंजन' है । इस व्युत्पत्ति के अनुसार कदंब पुष्पादि के आकारवाली कान, नाक, जीभ, त्वचा आदि उपकरणेन्द्रियों का अपने विषय-शब्द, गंध, रस और स्पर्शरूप में परिणत द्रव्यों के साथ जो स्पर्शरूप सम्बन्ध होता है, वह 'व्यंजन' है । दूसरा, इन्द्रियों के द्वारा भी शब्द आदि पदार्थ प्रकट होते हैं अत: वे भी 'व्यंजन' कहलाती हैं। अत: अर्थ हुआ कि इन्द्रियरूप 'व्यंजन' के द्वारा विषय सम्बन्ध रूप व्यंजन का अवबोध होना 'व्यंजनावग्रह' है। यहाँ 'व्यंजन' शब्द का दो बार प्रयोग होता है, पर एक 'व्यंजन' शब्द का लोप हो जाने से 'व्यंजनावग्रह' ऐसा एक 'व्यंजन' शब्द वाला ही प्रयोग होता है। अत: इन्द्रियाँ और शब्दादि के रूप में परिणत पुद्गल द्रव्यों के सम्बन्ध का बोध रूप तथा “यह कुछ है” ऐसे अव्यक्त ज्ञानरूप अर्थावग्रह से पूर्व होने वाला अव्यक्ततर ज्ञान व्यंजनावग्रह है। इसके चार प्रकार हैं (i) श्रोत्रेन्द्रिय व्यंजनावग्रह (ii) घ्राणेन्द्रिय व्यंजनावग्रह (iii) रसनेन्द्रिय व्यंजनावग्रह (iv) स्पर्शेन्द्रिय व्यंजनावग्रह । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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