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________________ द्वार २१६ २५४ क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों कषायें अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलनरूप होने से कुल सोलह प्रकार की हैं। नोकषाय के नौ भेद इस प्रकार हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद। हास्य, रति, अरति, भय, शोक और जुगुप्सा ये हास्यादि षट्क हैं। मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्व ये तीन दर्शन मोह हैं। इन सब को मिलाने से मोहनीय के अट्ठावीस भेद होते हैं ॥१२५६-५८॥ नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु-चार प्रकार का आयुष्यकर्म है। नीच और ऊँच दो प्रकार का गोत्र कर्म है। अन्तरायकर्म के पाँच भेद हैं-१. दान नहीं दे सकते २. लाभ नहीं मिलता, ३.-४. भोग-उपभोग नहीं कर सकते, ५. निरोगी होने पर भी अशक्त होना, यह अन्तराय कर्म का प्रभाव है ।।१२५९-६० ।। नाम-कर्म के बयालीस, सडसठ, तिराणवे अथवा एक सौ तीन भेद हैं ॥१२६१॥ बयालीस भेद इस प्रकार हैं-१. गति २. जाति ३. शरीर ४. अंगोपांग ५. बंधन ६. संधातन ७. संघयण ८. संस्थान ९. वर्ण १०. गंध ११. रस १२. स्पर्श १३. अगुरुलघु १४. उपधात १५. पराघात १६. आनुपूर्वी १७. श्वासोच्छ्वास १८. आतप १९. उद्योत २०. विहायोगति २१. त्रस २२. स्थावर २३. बादर २४. सूक्ष्म २५. पर्याप्ता २६. अपर्याप्ता २७. प्रत्येक २८. साधारण २९. स्थिर ३०. अस्थिर ३१. शुभ ३२. अशुभ ३३. सुभग ३४. दुर्भग ३५. सुस्वर ३६. दुःस्वर ३७. आदेय ३८. अनादेय ३९. यशकीर्ति ४०. अयशकीर्ति ४१. निर्माण और ४२. तीर्थंकर नामकर्म ॥१२६२-६६॥ चार गति, पाँच जाति, पाँच शरीर, तीन अंगोपांग, छ: संघयण, छः संस्थान, वर्णादि चार, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, चार आनुपूर्वी, श्वासोच्छ्वास, आतप, उद्योत, शुभ-अशुभ, विहायोगति, त्रस आदि बीस प्रकृतियाँ, निर्माण और तीर्थंकर नामकर्म सहित सड़सठ प्रकृति होती है। समकित मोहनीय और मिश्रमोहनीय को छोड़कर शेष कर्मों की त्रेपन प्रकृतियाँ पूर्वोक्त सड़सठ प्रकृतियों में जोड़ने पर बंध में कुल एक सौ बीस प्रकृति होती हैं। बंधन और संघातन शरीर के अन्तर्गत आ जाते हैं ।।१२६७-१२७१ ।। ___ पाँच बंधन, पाँच संघातन कुल दस हैं। वर्ण के पाँच, गंध के दो, रस के पाँच तथा स्पर्श के आठ कुल बीस हैं। नामकर्म की पूर्वोक्त सडसठ प्रकृतियों में वर्णादि चार पहले से गृहीत हैं अत: बंधन-संघातन के दस और वर्णादि के सोलह कुल छब्बीस भेद मिलाने से नामकर्म की तिराणवें प्रकृतियाँ होती हैं। बंधन के पन्द्रह भेद हैं। वैक्रिय, आहारक और औदारिक को स्वयं के साथ तथा तैजस और कार्मण के साथ जोड़ने से नौ भेद होते हैं। वैक्रिय आदि तीन को तैजस्-कार्मण के साथ जोड़ने से पुन: तीन बंधन होते हैं तथा तैजस और कार्मण को स्वयं के साथ तथा परस्पर जोड़ने से पुन: तीन बंधन होते हैं। नौ, तीन और तीन कुल पन्द्रह बंधन हुए। सभी भेदों को एकत्रित करने पर नामकर्म के एक सौ तीन भेद हुए। इस प्रकार आठ कर्म की एक सौ अट्ठावन उत्तर प्रकृतियाँ होती हैं ।।१२७२-७५ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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